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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
तीर्थंकर के जन्म हेतु शुभ देवों के कुछ अतिशय काम। चतुर्दिशायें स्वच्छ, स्वच्छ नभ, वसुधा होती हरित सुधा-न॥ सौरभमय मारूत शुचि वसुधा, सुरभि सलिल का अति सिंचन। पथ कंटक प्रस्तर विहीन ही, सुमनयुक्त नभ जय गुंजन ॥
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धर्म चक्र आगे चलता है तद्गत द्रव्य मांगलिक अष्ट । अष्ट सुभग प्रातिहार्य विराजे, तरु अशोक स्फटिक पुष्ट । तीन छत्र चामर वातायित, दिव्य प्रभा मंडल पुष्ठार्थ। गुंजन ध्वनि अति दिव्य, देवता बरसाते शुचि सुमन नभस्थ ॥२
*** बाल्यावस्था में वीर प्रभु की परीक्षा हेतु ईष्यावश संगम देव ने सर्प का रुप धारण किया। इस भयंकर सर्प को देखकर खेलते हुए सभी बच्चे भाग गये, किन्तु निर्भय वीर प्रभु ने सर्प के फण को उसी समय हाथ में पकड़कर या पैर से दबा लिया। यह भगवान के बल की ही महिमा है। शास्त्रों की भाषा में यह अतिशय ही है -
फुफकार मारता महाकाल के स्वर में निर्भय प्रभु ने, जा दबा लिया फण कर में बन गये एक क्षण में प्रभु कुशल सपेरा फिर लगे खेलने बना सर्प का घेरा -२
*** अतएव उत्तर कर वे उसके, फण पर निर्भय आसीन हुये। जननी की शय्या सम उस पर, क्रीडा करने में लीन हुये ॥
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"भगवान महावीर" : कवि रामकृष्ण शर्मा, सर्ग-१, पृ.१५
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"तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-२, पृ.३४ “परमज्योतिमहावीर" : कवि सुधेशजी, सर्ग-९, पृ.२४८
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