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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन है।' भगवान ऋषभदेव का उल्लेख जैन पुराणों के अतिरिक्त अनेक ग्रंथों में बड़े गौरव के साथ हुआ है। ऋग्वेद, श्रीमद् भागवत इत्यादि में ऋषभनाथ का विशद वर्णन हैं। वे सर्व पूज्य और सर्व सम्मत है, उनको लेकर कोई विवाद नहीं हैं। वे योगेश्वर है प्रागार्य है, वेदपूर्व है । वेदों में वेदांतीत है । मोहन-जो-दडों के अवशेषो मे उनको लेकर स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। वैदिक दृष्टि से ऋषभदेव भगवान प्रथम सतयुग के अन्त में हए है और रामकृष्ण के अवतारों से पूर्व हुए हैं। २ जैन दृष्टि से आत्मविद्या के प्रथम पुरस्कर्ता भगवान ऋषभदेव हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती थे। इसी अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के तीस वर्ष और साढ़े आठ शेष रहते उनका निर्वाण हो गया।
इस अवसर्पिणी काल में जैन धर्म के आदि प्रणेता समाजस्त्रष्टा और नीतिनिर्माता भगवान् ऋषभदेव हुए हैं। उस समय इस भरतक्षेत्र में न धर्म था, न परिवार-प्रथा थी, न समाजव्यवस्था थी, न राज्यशासन था, न नीति और न कला का उद्भव हुआ था। उस समय की प्रजा वृक्षो के फलो पर अवलम्बित थी, जिन्हे कल्पवृक्ष की संज्ञा प्रदान की गई हैं। जैन शास्त्रो में वह युगलकाल के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि मनुष्य का मनुष्य के साथ अगर कोई संपर्क था तो वह नर और नारी का ही था।
भगवान ऋषभदेव के पिता महाराजा नाभिथे जो इस काल के अन्तिम कुलकर थे। उनकी माता का नाम मरुदेवी था। युगलिक सभ्यता में ही उनका बाल्य काल व्यतीत हुआ।
कालचक्र तेजी के साथ घूम रहा था। प्रकृति में आमूल परिवर्तन हो रहा था। मानव प्रकृति में भोग लिप्सा का विकास हो रहा था और भौतिक प्रकृति की फलदायिनी शक्ति का हास हो रहा था। इस दोहरे परिवर्तन के कारण पहली बार अशान्ति का उद्भव हुआ। जो वृक्ष उस समय की प्रजा के जीवन निर्वाण के साधन थे, वे पर्याप्त फल नहीं देते थे और कृषि कर्म आदि से लोग अनभिज्ञ थे। इस परिस्थिति में एक भारी प्राण संकट उपस्थित हुआ। उस संकट का सामना करने के लिए युगानुकूल जो नूतन व्यवस्था की
जिनेन्द्र मत दर्पण भाग १, पृ.१० धम्माणं कासवो मुहं, उत्तराध्ययन १६, अ. २५ उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे, पढम केवली. पढमतित्थयरे, पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्थे- (जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३०)
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