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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन पूर्वबद्ध वैरवाले तथा देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष राक्षस, किन्नर, किं पुरूष गरूड, गन्धर्व और महोरग अर्हन्त के पास प्रशान्तचित्त और प्रशान्त मनवाले होकर धर्म सुनते हैं। अन्यतीर्थिक प्रावचानिक भी पास में आने पर भगवान को वंदन करते हैं। अर्हन्त के सम्मुख आकर अन्य तीर्थिक निरूत्तर हो जाते हैं। अर्हन्त भगवन्त जहाँ जहाँ विहार करते हैं वहाँ वहाँ पच्चीस योजनमें ईति (धान्य आदि का उपद्रव हेतु)नहीं होता है। प्लेग आदि महामारी का उपद्रव नहीं होता है। स्व चक्र (अपनी सेना का विप्लव) नहीं होता है। परचक्र (दूसरे राज्य की सेना से होनेवाला उपद्रव)नहीं होता है। अतिवृष्टि नहीं होती। अनावृष्टि नहीं होती। दुर्भिक्ष नहीं होता। पूर्व उत्पन्न औत्यपातिक व्याधियाँ शीघ्र ही उपशान्त हो जाती है। मस्तक के कुछ पीछे मुकुट के स्थान में तेज मंडल (भामंडल)होता है। वह
अन्धकार में भी दशों दिशाओं को प्रभासित करता है। देवकृत पन्द्रह अतिशयः
उन के शिर के केश, दाढ़ी, मूछ रोम और नख अवस्थित रहते हैं... न बढ़ते हैं न घटते हैं। उनके आगे-आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है। उनके उपर छत्र रहता है। दोनों और श्रेष्ठ चामर दुलते है। उनको आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणीका बना हुआ पादपीठवाला सिंहासन होता है। उनके आगे आकाश में हजारों लघुपताकाओं से शोभित इन्द्रध्वज चलता
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हैं।
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जहाँ जहाँ भगवान ठहरते हैं या बैठते हैं वहाँ वहाँ उसी क्षण पत्र, पुष्प और पल्लव से सुशोभित छत्र, ध्वज, घंट, एवं पताका सहित अशोकवृक्ष उत्पन्न होते हैं।
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