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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन प्रभु खींच चलाया तत्क्षण अपने पन से होकर उन्मत्त ।
*** लकड़ी का कीला उठा एक दोनों कानों में आर पार पत्थर से ठोके चला गया,
करता था चोटे बार-बार । २ भयानकरसः
भयानक रस का स्थायी भाव भय है। भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्षो तक सतत साधना की। उसी साधना के अन्तर्गत असुरों के द्वारा भयंकर उपसर्गो का चित्रण पाठकों के सामने उपस्थित किया है -
सोचा बालक डर जायेगा रुप विराट् भयावह उग्र सात ताड सम लम्बा होकर की ग्रीवा अतिशय उदग्र॥३
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निष्कर्ष रुप में मैं कह सकती हूँ कि महावीर संबंधी सभी काव्यों में शांतरस की बहुलता है। सर्वत्र प्रतिकूल-अनुकूल उपसर्गो में शांति, साधना में शांति, राज्य में शांति, जन्म के समय शांति, वैराग्य दशा में शांति, केवलज्ञान में शांति, समोवशरण में परस्पर वैमनस्यता में शांति और भव निर्वेद में शांति । जिस समय भगवान का निर्वाण होता है उस समय गौतम गणधर को फूट फूटकर रोते हुए देखकर जनता के दिलों में करूणा का भाव पैदा होता है। किन्तु अन्त में गौतम गणधरा का भगवान के प्रति जो अंश मात्र भी राग भाव था वह समाप्त होने पर उनको केवलज्ञान प्राप्त होता है। यही करूण रस फिर भावों के अनुसार शांतरस में परिणत हो जाता है। इस प्रकार विभिन्न प्रसंगो में शांतरस का पूर्ण विकास है।
__ "जय महावीर" : "कवि माणसचन्द", दशम सर्ग, पृ.१०३ ।।
“श्रमण भगवान महावीर'' : कवि योधेयजी, सप्तम् सोपान, पृ.२७४ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “शैशवलीला" सर्ग-४, पृ.५४
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