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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
हँसी हँसी में मीठी झिड़की खाकर शिशु ने होंठ सिकोड़े। माता ने चिपकाया उर से हँसकर दासी के कर जोड़े।
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वीर बालक जिस समय पनहारिन का खेल खेल रहा था, उसी समय की बाल चेष्टा का प्रशंसनीय चित्रण काव्य में कवि ने किया है -
मारा ढेला गिरी मथनियाँ लड़ने को आ गई दुलहनियाँ ॥
बरजो रानी बालक अपना, अभी उम्र को छोना ढोना, दिखा रहा रसरंजित सपना ॥२
. *** माता पनहारिन को समझाती है कि देखो बहिन; बुरा मत मानना । अभी बालक छोटा है । बाल्यावस्था निर्विकार और निर्मल सच्चित सोना जैसी होती है। तुम्हारा घड़ा फूट गया तो लादूँ तथा चुनरियाँ सीदूँ । हे पनहारिन ! ज्ञान कूप रुपी तप से युक्त बुद्धि की गगरियाँ भर दो
घडा फूटा तो नव घट दे दूं, सीं दूं फटी चुनरियाँ ज्ञान कूप से तप रसरी ले, भर लो बुद्धि गगरियाँ ॥३
*** राजकुमार वर्धमान ने साधना के लिए गृहत्याग कर वन में जाने का निर्णय किया, उस समय माता का बालक के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा और दुःखी स्वर में अपने मनोभावों को व्यक्त करती हुई पुत्र को समझाती है -
तू कमल फूल-सा कोमल तप की कठिन डगर
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or
is
"श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, "बाललीला", द्वितीय सोपान, पृ.७८ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “शैशवलीला", सर्ग-४, पृ.४९ वही, पृ.५०
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