________________
१८३
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
प्रभु तुम जिस पथ से जाओगे मेरी काया छाया होगी। मेरे प्रभु बाल ब्रह्मचारी, पूजा मेरी माया होगी॥
*** यह लौकिक प्रेम जब निसृत होता है तब सृष्टि के कण-कण में एक दिव्य चेतना दिखाई देने लगती है। सारे भेदों का अन्त होता है। इसमें इतनी शक्ति होती है कि पाप भी पुण्य में परिणत हो जाता है। काव्य में प्रेम के संयमित और उदात्त स्वरुप को ही कवि ने ग्रहण किया है। प्रेम के क्षेत्र में सौन्दर्य की नूतन कल्पनाओं, प्रेम का उदात्तपक्ष कवियों ने महावीर काव्य में निरुपण किया है। राजकुमारी यशोदा प्रियतम की स्मृति में अपनी सखी से कहती है कि
देख अनाधिन सी यह कलिका, मुरझाई बिना खिली सी। शैशव में भी नहीं किलकती, गुमसुम सी है होठ-सीली सी॥२
*** चकवी जैसे रात रातभर, प्रिय से बिछुड़ कलपती है। कौन समझता ? किसका दुःख है ? जिस पर बीती वही जानता।'
***
बिना वृक्ष के बेल अभागिन, ऐसी ही स्थिति मेरी है।
जैसे सलिम बिना सरिता हो, शुष्करेत समयह चेरी है। राजकुमारी यशोदा अपनी बेटी प्रियदर्शना से कहती है कि
आ बेटी ! प्रभु के गुण गालें। जग के हित प्रभू सूर्य बने हैं, मंगल-पर्व मना लें॥५
***
"वीरायण" : कवि मित्रजी, “वनपथ', सर्ग-१०, पृ.२५५ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, यशोदा विरह, सर्ग-१५, पृ.१६४ वही, पृ.१६८ वही वही, पृ.१६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org