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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन अरी घटा उस देश जा, जहाँ नारी के कंत। यहाँ बरसि क्यों रीतती, ऊसर थल पर हंत ।'
*** प्रियतम वर्धमान कुमार वन की ओर प्रयाण करते समय प्रिया यशोदा के अन्तर्मन के अनेक प्रश्न उभरकर अश्रु-जलके रुप में बह निकलते हैं। इस प्रकार कवि ने राजकुमारी यशोदा की वेदना युक्त मनःस्थिति का करूण चित्रण काव्य में किया है
यह कैसा है न्याय पुरूष का निर्णय स्वयम्, सुना डाला। हरा भरा जीवन मेरा तो, पलमें भस्म बना डाला।
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मेरे लिए महल का जीवन शूल भरा है पीड़ा स्थल। बिन स्वामी के नरक तुल्य है,
नागों का है क्रीडा स्थल राजकुमारी यशोदा मार्ग में खड़ी खड़ी पतिदेव के लिए मंगलं कामना करती हुई अपनी मधुरवाणी में हृदयोद्गारों को व्यक्त करती हैं -
मग में वियोगिनी खड़ी-खड़ी, गाती थी जाओ जय पाओ। मेरे मनहर मेरे उपास्य ! मेरी पुजा के हो जाओ।
*** तुम तप करने को जाते हो, मैं बदली बनकर साथ चली, तुम को धूप न लगने पाये, इसलिए धूप में स्वयं जली॥
*** "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, यशोदा विरह, सर्ग-१५, पृ.१६५ "श्रमण भगवान महावीर" : कवियोधेयजी, “विदाय की वेला", तृतीय सोपान, पृ.१२६ वही “वीरायण" : कवि मित्रजी, “वनपथ", सर्ग-१०, पृ. २५५ वही
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