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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
वियोग श्रृंगार :
कण कण जलता और पिघलता काया तिल तिल चटक रही । अंग अंग जैसे कटते हों,
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हड्डी हड्डी तिड़क रही । '
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२.
३.
स्व की पीड़ा को स्वयं ही जान सकता है, पराई पीड़ा को कौन जानेगा ? कवि यशोदा के शब्दों में अंतः मन की विरह व्यथा को राजकुमार वर्धमान को व्यक्त करते हुए काव्य में लिखते हैं कि
ऐसे ही जाना था तर्जकर तो क्यों मुझको ले आए ? तो क्या मेरे अर्न्तमन में,
टीस जगाने को लाए ?
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पत्नी यशोदा कभी अनिल से, कभी नभ की परी से, कभी चन्द्रमा से, तो कभी सूरज 'से पतिदेव के कुशल क्षेम का समाचार पूछती है और प्रियतम को अस वेदना का संदेश भी भेजती है । वह अपने प्रियतम को किसी न किसी प्रकार से प्राप्त करना चाहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण-कण में उसे खोजने का प्रयास करती है । अरि अनिल परदेश से आई है गतिमान |
कह प्रियका संदेशा कुछ, कुशलक्षेम भगवान ॥ ३
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जारी नभ की परी, प्रिय से कह संदेश ।
गौरी अब काली पड़ी बसे कौन से देश:
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'श्रमण भगवान महावीर " : कवि योधेयजी, “विदा की वेला", तृतीय सोपान, पृ. १२६
वही, पृ. १२५
"भगवान महावीर” : कवि शर्माजी, यशोदा विरह, सर्ग - १५, पृ. १६५
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