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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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सबने किया प्रणाम शीश कुछ अनायास ही झुक जाता था । ऐसा लगता जन्म जन्म का जीवनऋण चुकता जाता था । पशु-पक्षीओं जीव जन्तु भी झुके जले आते थे। 1 परम दुःखी भी क्षण भर में ही परमोसुख पाते थे । '
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नव में प्रकोष्ठ में सूर्य चन्द्र भी बैठे
औ अन्य कल्पवासी बैठे दस में थे
थे ग्यारहवें में मनुज और विद्याधर थे सिंह और मृह बारहवें में आकर
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भव निर्वेद में शांति :
आत्मा जब परमात्मा के स्वरुप को प्राप्त करती है उस समय जो अपूर्व शांति प्राप्त होती है उसका वर्णन कवि ने मनोहर शब्दावली में किया है
रुक गई दिव्य वाणी की सब अंग हो गये निष्क्रिय
लेकिन प्रतिमा का अब भी वह योग चला रहा सक्रिय - ३
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शुक्ल ध्यान की चौथी स्थिति में जा पहुँचे जहाँ कर्म, कोई शेष नहीं रहता । शुद्ध- जीव, निज आभासे आलोकित था, इसके नन्तर कोई बन्ध नहीं रहता
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भगवान महावीर कवि शर्माजी, “समवशरण परिषद", सर्ग - १४, पृ. १५५ “तीर्थंकर महावीर”, कवि गुप्तजी, पंचम सर्ग, पृ. १९७
वही, आठवाँ सर्ग, पृ. ३५०
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'श्रमण भगवान महावीर” : कवि योधेयजी, “परिनिर्वाण", नवम् सोपान, पृ. ३४६
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