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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन जगमग करता सूर्य गगन में विहंस रहा था महावीर के भीतर-बाहर हुआ उजाला। मात्र ज्ञान का पुञ्ज बने बैठे ही बैठे, दशों दिशाओं में फैला था शुभ्र उजाला।'
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स्फटिक मणि सम देह हुई हो गए घातियाँ कर्म नाश, बहती थी मंद सुगन्धवायु चहुँ दिशि में फैल गई सुवास, शचि पति का आसन हिला तभीसुर वाद्य बज उठे अनायास, तब इन्द्र अवधि से जान गया प्रभु अन्तर में फैला प्रकाश, २
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आसन लग गई उसी तरू तल प्रतिमासन ध्यान लगाते हैं, वैशाख शुक्ल दशमी को तब केवल ज्ञानी बन जाते हैं, तप के प्रभाव से गाय सिंह पानी पीते हैं एक घाट, छह ऋतुओं के फल फूल सभी तरूओं में आए एक साथ, २
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वन में शांतिः
मुनिनाथ बढे पथ पर आगे, वन-वन ने चरण बन्दना की। सरिता सरिता ने पग धोये, पथ-पथ ने चरण अर्चना की। वर्षा ने आ अभिषेक किया, गूंजे मेघों के मधुर गीत । मोरों ने मनहर नृत्यु किये, चरणों से करने लगे प्रीत ।'
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खग कुल गुण गाने लगे डाल डाल पर गीत
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"श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, सोपान-७, पृ.२८७ "त्रिशलानंदन महावीर" : कवि हजारीलाल, पृ.६७ वही "वीरायण" : कवि मित्रजी, “दिव्यदर्शन", सर्ग-११, पृ.२७६
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