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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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जग सुख की अनुभूति अजानन जिसका था कोई परिणाम । १
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महाकाव्यों के अन्तर्गत कवि ने विविध प्रसंगो पर भिन्न-भिन्न शान्तरसका चित्रण अंकित किया है। जन्म से पूर्व जड़ व चेतन प्रकृति में शांति, राज्य में शांति, साधना में, वैराग्यता के समय में, भव निर्वेद में, समोवशरण में परस्पर वैरभावना में शांति आदि अनेक शान्तरस के पदों को काव्य में प्रस्तुत किया है । विविध प्रसंगों में वर्णित शांतरस के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है
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व ज्ञान के समय की शांति का भाव देखिए - वह नीलाम्बर था स्वच्छ दिशायें लीनी, वह मन्द हवा भी बहती आज सलौनी, देवों ने अंजलि भर-भर पुष्प गिराये, गन्धोदक के छीटे, प्रभु पर बरसाये -
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देवलोक में बजी बधाईगूँजा साज मनोहर
कल्पवृक्ष ने फूल गिरायेखिलकर उनके ऊपर ॥ २
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चन्द्रयोग नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी का था तब भगवान । गोदुह आसन लगा बिराजे आत्म- रुप ले सम्यक् ज्ञान । शुक्लध्यान की लथ में, केवल दर्शन का हो गया प्रकाश, लोका-लोक भाव थे प्रभु के सन्मुख फैला आत्म-प्रकाश
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'श्रमण भगवान महावीर” : कवि योधेयजी, सोपान - १, पृ. ६९ "जय महावीर " : कवि माणकचन्द, सर्ग - ४, पृ. ४६
" तीर्थंकर महावीर” : कवि गुप्तजी, सर्ग - ५, पृ. १७६
" चरम तीर्थंकर महावीर” : आचार्य श्री विद्याचंद्रसूरि, पद सं, १५७, पृ.४१
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