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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन उसमें भी ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक माना गया है। महान दार्शनिक डॉक्टर राधाकृष्ण इस कथन से पूर्ण सहमत हैं। अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ऋषभदेव प्रागैतिहासिक पौराणिक पुरूष है जिनका कि वेदों पुराण ग्रंथो में वर्णन है । भगवान ऋषभदेव को महापुराण में प्रजापति भी कहा गया है।' तीर्थंकर परंपरा में भगवान महावीर तीर्थंकर शब्द तीर्थ उपपद कृञ्+अप से बना है। इसका अर्थ जो तीर्थ धर्म का प्रचार करे यह तीर्थंकर है। तीर्थ शब्द भी तृ+थक से निष्पन्न है। अर्थात् जिस के द्वारा संसारमहार्णव है या पापाविकों से पार हुआ जाय, यह तीर्थ है । इस शब्द का अभिधागत अर्थ घाट, सेतु या गुरू है और लाक्षणिक अर्थ धर्म है । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर तीर्थंकर शब्द व्यवहृत हुआ है। २ साम-अफलसूत्र में छह तीर्थंकरो का उल्लेख किया गया है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य की तरह मुख्य रूप से यह शब्द वहां प्रचलित नहीं रहा है। कुछ ही स्थलों पर उसका उल्लेख हुआ है। किन्तु जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में हुआ है। ____ जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता होता है वह तीर्थंकर कहलाता है। श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थं कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते है उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहते हैं। संस्कृत साहित्य में तीर्थ शब्द घाट' के लिए प्रयुक्त हुआ है। संसाररूपी एक महान नदी है, उस में कहीं पर क्रोध के मगरमच्छ हैं, कही पर माया के विषेले सर्प फुत्कार करते हैं तो कहीं पर लोभ के भंवर विद्यमान हैं। अनन्त दया के सागर तीर्थंकर प्रभु ने साधकों की सुविधा के लिए धर्म के घाट का निर्माण किया। अणुव्रत, महाव्रतों के नियम आदि की व्यवस्था की जिससे साधक को संसाररूपी भयंकर समुद्र को पार करने में सुविधा रहे। तीर्थ का अर्थ सेतु भी है। चाहे कितनी बड़ी से बड़ी नदी क्यों न हो, यदि सेतु है तो निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थंकरों ने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप संघस्वरूप सेतु का निर्माण किया है। . आषाढमासबहुलप्रतिपददिवसे कृति। कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान ।। महापुराण १९०/१६/३६३ बौद्ध साहित्यका लंकावतार सूत्र दीघनिकाय सामञफलसूत्र, पृ.१६-२२ हिन्दी अनुवाद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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