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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन शिशिर में जल काया थर-थर चर्तुष्पाद या सरिता तट पर - १ - *** एक पाँव पर कभी बैठकर प्रभु ने पुरा दिन काटा। कभी आँधियों में ही रहकर, अपना कर्म जाल काटा।
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यक्ष रात में घात लगा के - टूटा उन पर वज्र गिरा के। अट्टहास फिर किया जोर से - अशनि-पात के तुमुल शेर से।३
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भगवान की सहिष्णुता चरम सीमा पर थी। साढे बारह वर्ष की सतत साधना के अन्तर्गत अनेक उपसर्गो को भगवान ने कैसे शांतिपूर्वक सहन किया। उनकी ताड़ना, तर्जना, अपमान और उत्पीड़न कदम-कदम पर होते रहे फिर भी समता से इन कष्टों को किस प्रकार झेला? कैसे संगमदेवता द्वारा छः मास तक निरंतर उपसर्गों की वर्षा हुई और भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। उसने विविध भयानक रुपों को धारण कर भगवान को परास्त करना चाहा, किन्तु स्वंय परास्त हुआ । इन उपसर्गों की क्रूरताभयानकता का प्रस्तुतीकरण प्रकृति के माध्यम से किया है -
ध्यान मुद्रा में लगी समाधि सामने भूत-प्रेत की व्याधि नेत्र भारी विशाल को फाड़ खड़ा था सम्मुख मार दहाड़ - ४
__ *** "तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-४, पृ.१४७ "श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, सोपान-६, पृ.२३५ "जय महावीर" कवि माणकचंद सर्ग-११, पृ.१०७. "तीर्थंकर महावीर" : कविगुप्तजी, सर्ग-४, पृ.१५०
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