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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
चतुर्दिशि में लोह तोरण द्वार नगर रक्षा के सुदृढ आधार' स्वर्ण-चांदी-हीरा-मुक्ता हार और था धन-धान्य का व्यापार
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कवियों ने सौन्दर्य चेतना में लौकिक सौन्दर्य को अलौकिक भूमिका पर पर्यावसित करने का सफल प्रयास किया है, वह अनुमोदनीय है, यह कवियों की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। सच कहा जाय तो पूर्वयुगीन काव्य में हमें ऐसी सूक्ष्म और गंभीर सौन्दर्य दृष्टि दिखाई नहीं देती है। यह सौन्दर्य दृष्टि सर्वथा मौलिक है।
कवि डॉ. गुप्तजी, मित्रजी, शर्माजी, योधेयजी, आदि समस्त कवियों ने महाकाव्यों में प्रकृति के विविध रुपों का उद्दीपन के रुप में भी अलौकिक चित्रण किया है। जन्म के समय का वातावरण, बालक्रीडा, उपसर्ग, शान्त, करुणरस, संयोग-वियोग आदि श्रृंगाररस वर्णन में कवि ने काव्य में प्रकृति के उद्दीपन भाव से उत्तम चित्र प्रस्तुत किए हैं। कवि ने काव्य के अन्तर्गत दो प्रकार के उद्दीपन भावों को लिया है - पात्रस्थ
और बाह्य । पात्रस्थ में आलंबन की चेष्टाएँ। आलम्बन गत चेष्टाएँ तो सभी रसों में हुआ करती हैं पर बाह्य परिस्थितियों का उद्दीपन के रुप में श्रृंगार में ही विधान दिखाई देता है। अन्य रसो में प्रायः उनका अभाव है। कवि गुप्तजी, माणकचन्दजी, आदि कवियों ने भगवान के जन्म से पूर्व का वातावरण तथा रानी त्रिशला की देह का प्रकृति के साथ उसके अनुकूल चित्रण अंकित किया है -
गर्भ भार से मुख
आभा पीली पीली कनक लता सी देह यष्टि
सुरभित गर बीली - ३
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or
is
"तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-१, पृ.८ वही, पृ. ११ वही
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