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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
का प्रतिबिंब देखा और उसके विकल मनने प्रकृति की गोदमें स्वयं को भुला देने में ही सुख और शान्ति का अनुभव किया । प्रकृति उनकी प्रेयसी बन गई। इन कवियों ने दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति के अचेतन तत्वों में चेतना भर दी । प्रकृति केवल जड़ पदार्थ नहीं है, अपितु वह एक रहस्यमयी शक्ति है, जो संसृति का संचालन करती है । जैसे...
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धरती पर उतर उतर कर किरणें भी रास रचाती
बिखरे मुक्ता दल लेकर प्रकृति का साज सजाती -
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गीतों की बांसुरिया पर उठती रागनियाँ प्यारी प्रियतम को बुला रही ज्यों छन्दों की राजकुमारी - २
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भाव की चरम परिणति रस की विविधता प्रबंध काव्यों में दृष्टि गोचर होती है । मनुष्य से लेकर कीट, पतंग, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि सृष्टि का कोई भी पदार्थ आलम्बन बन सकता है । जिस के काव्य में सृष्टि के विस्तृत प्रांगण से जितनी अधिक वस्तुएँ गृहित होगी वह उतना ही महान कवि होगा। उसने चेतन-अचेतन, क्षुद्र - विराट्, मानव-दानव, पशु-पक्षी, शुभ-अशुभ, राजा-रंक सभी को समस्त विभिन्नता के साथ अपनाया है । " तीर्थंकर महावीर” काव्य में कवि भगवान की अमृतमयी वाणी का उद्घाटन करते हुए लिखते है .
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कहते थे खुले हृदय से सब सृष्टि एक है भाई
सब का है एक नियामक यह देख सभी ने पाई -
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"तीर्थंकर महावीर” : कवि गुप्तजी, सर्ग-८, पृ. ३३६
वही
वही, पृ. ३३९
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