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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
प्रबन्धों के आधार पर प्रकृति चित्रण कवियों ने अपने काव्य को प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य से मण्डित किया है और उसे मानवीय भूमिका पर प्रस्थापित किया है। उसका मानवीकरण करके मानव और प्रकृति के द्वैत को मिटा दिया है। उन्होने प्रकृति को एक स्वतंत्र चेतना सत्ता के रुप में देखा तथा उसके माध्यम से मानव-जीवन की समस्त क्रियाओं और अनुभूतियों का सजीव चित्रण किया है। सभी कवियों ने काव्य में सृष्टि के अमूर्त और जड़ पदार्थो को मूर्त और सप्राण मानकर चित्रण किया है। उन्होंने प्रकृति में मानव-रुप, व्यापार और भावों का प्रतिबिम्ब देखा और अपने हृदय में प्रकृति के हर्ष-विषाद का प्रतिरुप पाया। प्रकृति और मानव अभिन्न हो गये । महावीर काव्य में कवियों ने प्रकृति में परमात्मा का दर्शन किया तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर आरोपण किया है। युगधर्म की भावना से प्रेरित होकर इन कवियों ने प्रकृति-चित्रण में मानवीय-संवेदना को भी स्थान दिया है। कवि पूर्वकालीन दुःखी जनों की स्थिति वर्णन करते हुए प्रकृति के उपमानों का प्रयोग करता है -
वेदना की उत्तर आई शाम तिर रहे हर आंख में बनकर सजल घनश्याम धर्म पर आस्था - अटल - विश्वास फैलता ही गया।
रो उठा या देखकर आकाश बन रहा था मनुज धरती के मनुज का दास
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प्राचीन कवियों ने तटस्थ रुप से प्रकृति का बाह्य निरुपण किया था, किन्तु छायावादी कवि की भाँति प्रकृति से इतने घुलमिल गये कि दोनो में भेद नहीं रहा। उसका मानवीय करण कर दिया। उन्होंने महावीर काव्य में वर्णित प्रकृति में अपनी भावनाओं
"तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-१, पृ.६ वही, पृ.५
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