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नारी उत्थान :
भगवान महावीर ने इस नारी उत्पीड़न, उसकी गुलामी का जोरदार प्रतिकार किया। उन्होने उसे महान सामाजिक दोष व मानवता के नाम पर एक बड़ा कलंक घोषित किया। महावीर ने कहा, जो अपनी माता, बहिन, पुत्री, पत्नी आदर नहीं कर सकता वह बड़ा पापी है। अपनी जननी का अनादर पाप का बन्ध करता है । महावीर आगे आये उन्होने अपने प्रवचनों में बार-बार नारी के महत्व को बड़ा स्थान दिया ।
भगवान ने ज्ञान से देखा कि नारी की आत्मा भी आत्मा है और पुरुष की आत्मा भी आत्मा है। तात्विक दृष्टि से देखा जाये तो कोई भेद नहीं है। दोनों समकक्ष है । वहाँ लिंग भेद या देह भेद को कोई स्थान नहीं है। ठीक हैं, पूर्वजन्म के शुभाशुभ कर्म से एक को पुरुष देह मिली और दूसरे को स्त्री देह मिली। स्त्री सभी जन्मों में स्त्री रुप से रहेगी और पुरुष सभी जन्मों में पुरुष रूपसे ही जन्म लेता रहता है ऐसा कोई अकाट नियम नहीं है। तो सिर्फ लैंगिक और दैहिक भेद के कारण पुरुष कल्याण के लिए पूर्ण अधिकारी और स्त्री नहीं, यह कैसी विडम्बना है ? मुझे तो लगता है कि उसमें तो नारी देह का अपमान है, नारी की आत्मा का अनादर है। जो तीर्थंकरो, अवतारों को जन्म देती है और जो सन्तों, ऋषियों, महर्षियों, और उत्तम नरों की जन्मदात्री है, ऐसी जगज्जननी को हीन दृष्टि से कैसे देखा जायें ? कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देनेवाली माताएँ हुई है । अन्तकृतदशा और उसकी वृत्ति में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन तु जाने का उल्लेख है । आवश्यक चूर्णि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि महावीर
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अपनी माता को दुःख न हो इस हेतु उनके जीवित रहते संसार त्याग नहीं करने का निर्णय अपने गर्भकाल में ले लिया था। इस प्रकार नारी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव,
देव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देनेवाली श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा भी पूजनीय मानी गई है। महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश
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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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भगवती आराधना गाथा, ९८९ - ९४
तणं से कहे द्रासुदेव हाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदाये - अन्तकृद्दशा सूत्र - १८.
नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहिं जीवंतेहिं मुण्डे भवित्ता अगारवासाओ.... - कल्पसूत्र९१ ( एवं ) गब्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे- होक्खामि जाव एताणि एत्थ जीवंतित्ति । आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पृ. २४२ प्र. ऋषभदेव जी
केशरीमल श्वेतांबर सं. रतलाम, १९२८.
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