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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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एवं धर्मश्रद्धा के कारण कामग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह सर्व कल्याणकारक है, वह धन्य है, पुण्यशाली है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, वह तो साक्षात् देवता है, सरस्वती है, अच्युता, परम पवित्र सिद्धि, मुक्ति शाश्वत शिवगति है । १
जैन धर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना है । और श्वेताम्बर परम्परा ने मल्ली कुमारी को तीर्थंकर माना है । इसिमण्डलत्थू (ऋषिमण्डलस्तवन) में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वंदनीय माना गया है । ३ तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रुप में चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया है । ४ और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं । यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में देवी पूजा की पद्धति लगभग गुप्तकाल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है । उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक की चूर्णि में राजीमति द्वारा मुनिरथनेमिको तथा आवश्यक चूर्णि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख है । ' न केवल भिक्षुणियां अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं । उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग
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महानिशिथ २ / सूत्र २३ पृ. ३६
तए णं मल्ली अरहा.. ..... केवल नाण दंसणे समुप्पन्ने । - ज्ञाताधर्मकथा ८/१८६
अजावि भी सुन्दरी - राइमई - चन्दणा पमुक्खाओ। कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ॥ - ऋषिमण्डलस्तव २०८
देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारी कालि महाकाली ।
अच्चुय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा ॥
पवर विजयंकुसा पण्णत्ति निव्वाणि अच्चुया धरणी ।
इरो ऽच्छुत गंधारी अंब पउमावई सिद्धा ॥ - प्रवचनसारोद्धार, भाग-१, पृ. ३७५-७६
देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सन् १९२२
तीसेसो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं ॥
अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो |- उत्तराध्ययन सूत्र- २२-४८
( तथा दशवैकालिक चूर्णि, पृ. ८७-८८ मणिविजय सीरिज - भावनगर)
भवयं बंभी - सुंदरीओ पत्थवेति... इमं व भणितो ।
किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जई ॥ - आवश्यक चूर्णि भाग - १, पृ. २११
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