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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन प्रवेश पाना नारी के लिए कोसों दूर था । आर्थिक क्षेत्र में नारी का आना अपमान समझा जाता था। धार्मिक क्षेत्र में भी नारी की उपेक्षा की जाती रही। इस प्रकार महावीर काव्यों में कवियों ने महावीर युगमें नारी की अत्यन्त शोचनीय दया का वर्णन किया है :
द्रोपदी को नग्न कर रहे यहीं।
आदमी में आदमी रहा नहीं॥ न प्यार है न सार है न साज है न राज है। समाज कोढ से धिरा अराज राज आज है। न कौन झूठ खा रहा न कौन लूट ला रहा। न कौन रक्त पी रहा न कौन मांस खा रहा।
*** चंदनबाला जैसी सती नारियों ने क्या नहीं सहा ? स्त्रियों को गुलामों की भाँति बेचा करते थे। लोगों के हृदय में उनके प्रति जरा भी करुणा नहीं थी। आदर की तो क्या कहे ? जिस समय सती चंदना को बाजार के बीच लेजाकर खड़ी करके खुले आम नीलामी पर चढाया गया। उस समय की दयनीय दशा का कविने चित्रण काव्य में प्रस्तुत किया है -
क्या लोगे, इतना लूँगा, इतना दूंगा। काप रहा तूफानों में निर्मल मूंगा खुले आम नीलामी की बोली लगती। कैसे निज धुर पर टिकी रही जगती॥२
*** कैसा था वह दृश्य बालिका निर्विकार। खड़ी हाट में, देख रहे थे खरीददार ॥ करता रहा, मनुज ही, व्यापार मनुज का कहो ! काम यह नर का है या दुष्ट दनुज का ॥३
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“वीरायण', कवि मित्रजी, “पृथ्वीपीड़ा', सर्ग-२, पृ.६३ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “चंदना उद्धार", सर्ग-१२, पृ.१४० वही, पृ.१३९
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