________________
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
१४९
1
धर्मग्रन्थों के पठन-पाठन का अधिकार था, न ही उच्च आध्यात्मिक क्षेत्र में अग्रसर होने MAT अधिकार था और न धर्म-कर्म करने का । कदम-कदम पर उसके लिए दासिता की बेडियाँ बिछी थी। नारी जाति को उस युग में पैर की जूती से भी हेय समजा जाता था । पौती के रुप में रखा जाता था । सरे बाजार में नारियाँ बिकती थी । उनके भाव लगते थे, बोलियाँ लगती थी। पशुओं से भी बुरी गत थी नारियों की । जिस किसी के पास दासदासियाँ जितनी अधिक होती, उसे उतनी ही सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती । अतएव होड हुई थी कि कौन अधिक दास-दासियाँ खरीदे । कवि " रघुवीरशरण मित्र" ने अपने वीरायण काव्य में नारियों की करुणाजनक स्थिति का वर्णन किया है
१.
२.
नीलाम नारियाँ होती हैं, सुन्दरता के बाजार लगे ।
अपने रक्षक अपने न रहे, वे शत्रु हुए जो रहे सगे ॥ पापों से प्यास नहीं बुझती, शंकर को काम सताता है। जो दनुज चोर मक्कार धूर्त, वह कवि का दोष बताता है ॥ १
***
-
रोटी न रही बोटी बिकती, चोटी न रही माला छूटी। रक्षक भक्षक बन बैठे हैं, भारत माँ की किस्मत फूटी ॥ उत्कोच न्यायकर्ता लेते, योगी भोगी बन खाते हैं । लक्षण न रहे खाते अभक्ष्य, प्रिय देश बेचते जाते हैं।
***
पारिवारिक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्रों में भारतीय नारी को समानता के अधिकारों से समय पर वंचित रखा गया है। नारी को केवल गृहलक्ष्मी कहकर उसको घर की चार दीवारों में ही बंध रखा गया है। नारी को लोक लाज की कटपुतली समझकर उसे भीषण पर्दा पथा में जकड़ा गया। लोकजानकारी न हो और पुरुषों के बराबर अपना उत्थान न करे इसलिए उसको जान बुझकर शिक्षा से दूर रखा । परिवार में पुरुष की गुलामी की बेडियों में नारी को इस प्रकार जकड़ा गया कि पुरुष के बिना इशारे पर उसका घरसे बाहर निकलना भी मुश्किल था । समाज की गतिविधियों पर कभी भी नारी को सोचने का अवसर ही नहीं दिया। राजनैतिक क्षेत्र में
"वीरायण", कवि मित्रजी, "संताप", सर्ग -८, पृ. २७५
वही
Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org