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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन कर हरण भोगकर युवती को दूसरे रोज खा जाते थे। फिर नयी किसी कन्या को ला, वे पहेला जमाते थे। ये नृत्य रात दिन होते थे, ये कांड रात दिन होते थे। हत्यारे हिंसा करते थे, त्रिशला के अक्षर रोते थे।'
*** अनमेल-विवाह ने नारी की स्थिति को ओर गिरा दिया है। सामान्त युग से प्रभावित रहने के कारण आज दहेजका लेना-देना बडप्पन का सूचक समझा जाता है।
आज नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रहा है, पुरुष के व्यक्तित्व में ही उसका व्यक्तित्व मिल गया है। अतः इस दयनीय स्थिति को उन्नत बनाना अत्यावश्यक है। यह भूलना न होगा कि नारी भी मनुष्य है और उसको भी अपनी उन्नति का पूरा अधिकार प्राप्त हैं।
समय-समय पर ऐसे कार्य होते रहें जिनसे उतार-चढाव का तूफान आता रहा। जो नारी पुरुष के समकक्ष थी, जिसका समाज में आदरणीय व समानता का स्थान था। कालचक्र के साथे उसको पीछे धकेल दिया गया। अच्छी अच्छी कुशाग्र बुद्धिशीला नारियाँ जो विश्व में चमत्कारपूर्ण कार्य कर सकती थी, उनके उपर अत्याचार ढाये गये। वासना तृप्ति का शिकार बनाया गया और वे भोग्य पदार्थ सी बन गई। महावीर कालीन समाज में वे तिरस्कृत थी तथा समाज में समकक्ष स्थान चाहती थी। महावीर तो सुलझे हुए तपस्वी थे। वे संसार वासियों को उत्तम तरीके से जीने-देने की इच्छा रखते थे। नारी जाति के प्रति भगवान महावीर बड़े ही उदार विचारक थे। उस युग में भारी-जाति की अत्यन्त दयनीय स्थिति थी, उसी का कवियों ने प्रबन्ध काव्यों में चित्रण किया है -
मच गई लूट वैशाली में, पत्नियाँ लुटी बेटियाँ लुटी। रानियाँ लूटी बाँदियाँ लूटी, सिन्दूर पीछे मंहदियाँ छुटी। कितनी स्वच्छ नीरजाएँ जीवित, जल गई चिताओं में।
कुछ फूलों में दर्शन देतीं, कुछ दीपित दीप शिखाओं में। मायावी कामाग्नि और साक्षात् नरक मूर्ति आदि मनमाने अपशब्द कहकर उसका पग पग पर अपमान और उपेक्षा की जाती थी । सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में वह अपने सब अधिकारों से सर्वथा वंचित थी, न उसे पवित्र
१. २.
“वीरायण", कवि मित्रजी, “तालकुमुविनी', सर्ग-३, पृ.८० वही, “संताप", सर्ग-८, पृ.२०१
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