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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन ग्रहण कर लेती थी। कुछ ऐसे उल्लेख भी मिले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य को धारण करके या तो पितृगृह मे रह जाती थी अथवा दीक्षित हो जाती थी। जैन परम्परामें भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने हमेशा नारी को संकट से उबारकर न केवल आश्रय दिया है, अपितु उसे सम्मान और प्रतिष्ठा का जीवन जीना सिखाया है। जन भाषा का प्रयोगः
भगवान महावीर ने अपनी उदात्त एवं क्रान्तियुक्त वाणी के सजीव स्पर्श से जीवन के किसी भी पहलू को अछूता नहीं छोड़ा। मानव-समाज की हित साधना के लिए ही तो वे तीर्थंकर के रुप में धर्म प्रचार के सार्वजनीन रंगमंच पर चमके थे। एक क्रान्तिकारी विचार धारा के उन्नायक होने के नाते जहाँ उन्होने तत्कालीन अनेक रीतिरिवाजों, धार्मिक विधि विधानों और मानवीय दृष्टिकोणों में न्याय-मूलक सुधार किये, वहां भाषा के नाम पर भी एक बहुत बडी क्रान्ति की । पण्डित-वर्ग की संस्कृत भाषाजिसे देव भाषा कहते थे - को छोडकर लोक में धर्म प्रचार भी उनका एक महत्वपूर्ण सुधार था। अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरो के समान ही भगवान महावीर ने जनता के अत्यन्त निकट पहुँचने की दृष्टि से ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, पुरुष बाल, वृद्ध, पठित, अपठित, जन साधारण तक विशुद्ध आत्म-धर्म का प्रकाश पहुँचाने के न्याय विचार से जनता की बोलचाल की प्राकृत भाषा को धर्म प्रचार के लिए सर्वथा उपयुक्त समझा।
. उनके प्रवचन लोकभाषा में होने के कारण उसमें किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं थी। श्रोता सीधे उनकी बात सुनते, समझते और हृदयंगम कर लेते थे। उस युग में आज के वैज्ञानिक साधनों का अभाव होते हुए भी भगवान महावीर का उपदेश तथा शासन इतनी शीघ्रता के साथ लोकप्रिय हो गया था, उसका एक कारण यह भी था कि उनके सीधे-सादे धार्मिक प्रवचनों ने जन-हृदय को छू लिया था । वस्तुतः भगवान महावीर ने अपने धर्म को जैन धर्म और भाषा को जन भाषा का रूप देकर एक रचनात्मक क्रान्ति का आवाहन किया था, जिसका कोटि-कोटि जनता ने मुक्त हृदय से स्वागत किया। धार्मिक स्थितिः
ई.पू. ६०० के आस-पास भारत की धार्मिक स्थिति भी बहुत ही अस्थिर और भ्रान्त थी। महावीर ने देखा कि, धर्म की लोगों ने उपासना की नहीं, प्रदर्शन की वस्तु समझने लगे हैं। उसके लिए मन के विकारों ओर विभावों का त्याग आवश्यक नहीं रहा है यज्ञ में सामग्री की आहुति के साथ पशुओं तक का बलिदान होने लगा। “वीरायन'
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