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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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यद्यपि निशीथचूर्णि में एस ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सौपारक के पांच सौ व्यपारियों को कर न देने के कारण राजाने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था और उक्त उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियां भी उनकी चिताओं में जल गई थी ।' लेकिन जैनाचचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। पुनः इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्तु उसके पितृकूल में यह रिवाज नहीं था अतः उसने अपना विचार त्याग दिया । " इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्यु के पश्चात् स्वेच्छा से भी अपने देह त्याग
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अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को बालमरण या मूर्खता ही कहा है । जैन धर्म और दर्शन यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल मरने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। जैन धर्म तो कर्म सिद्धांत के प्रति आस्था के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मो और मनोभावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं ।
अतः यह स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैन धर्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करता। जैन धर्म के सती प्रथा के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी रहे हैं । व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित है जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। शालीभद्र की माता भद्रा को राजगृह की एक महत्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरुपित किया गया है। जिसके वैभव को देखने के लिए श्रेणिक भी उसके घर आया था। आगमों और आगमिक व्याख्योओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। जैन भिक्षुणी संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं का सुरक्षित आश्रय स्थल था । आगम साहित्य में ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी । ज्ञाता धर्म कथा में द्रोपदी पति और पुत्रों की सम्मति से दीक्षित हुई थी। किन्तु इसके अलावा ऐसे उदाहरणों की विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नी पति के साथ अथवा पति एवं पुत्रों के मृत्यु उपरान्त विरक्त होकर संन्यास
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निशीथ चूर्णि, भा. - ४, उद्देशक - १६, पृ. १४, गा. ५१५६ सिं पंच महिलसताई, ताणि वि अग्गिं पविट्ठाणि ।
महानिशीथ, पृ. २१५-२१७ देखें, जैन आगम साहित्यमें भारतीय समाज, पृ. २७१
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