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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है, जो निवृत्तिप्रधान जैन धर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। विधवा विवाहः
विधवा हो जाने के उपरान्त भी नारी की अवस्था में सामान्यतया कोई अन्तर नहीं आता था उस समय बाल कटवाना, रंगीन वस्त्र न पहनना, मांगलिक कार्यो में उपस्थित न रहना आदि हीनावस्था-सूचक कार्य विधवा स्त्रियों के लिए आवश्यक कृत्य नहीं थे और न ही सती होनी की दारूण प्रथा का ही अस्तित्व था।
विधवा स्त्री के लिए वियुक्त पति की सम्पत्ति, ज्ञाति-पुरूषों का संरक्षण या परपुरूष का ग्रहण जीवनयापन के प्रमुख थे। कभी-कभी उक्त तीनों साधनों के अभाव में स्त्री वर्ग भिक्षुणी संघ को ही अपने जीवनयापन का साधन बनाती थीं।
विधवाओं का पुनर्विवाह समाज से मान्य नहीं था, तथा ऐसी विधवा स्त्रियों का, जिनका पति मर जाता था, पुनर्विवाह नहीं होता था। आगमकाल में नियोग जैसी प्रथा का भी प्रचलन नहीं था। वस्ततः जैन धर्म में विवाह एवं सन्तानोत्पत्ति को, प्रश्रय न मिलने से उस समय न तो विधवा सामाजिक घृणा की पात्र होती थी और नहीं सन्तानप्राप्ति के हुतु पुनर्विवाह या नियोग प्रथा का अपनाना उत्तम माना जाता था। दासी प्रथाः
- परिचारिकाओं में दासियों का आधिक्य था। ये प्रायः प्रत्येक सम्पन्न परिवार में रखी जाती थी। उन पर, उनके स्वामी-वर्ग का पूर्ण अधिकार होता था और जब स्वामी से दासता से मुक्ति प्राप्त करती थी तभी मुक्त समझी जाती थी। स्त्रियाँ चार प्रकार से दासियाँ बन जाती थी -दासी की कुक्षि में जन्म लेने से, किसी से खरीदी जाने पर, प्रतिकूल परिस्थिति से स्वतः दासत्व को स्वीकार करने पर तथा युद्धक्षेत्र में बन्दी हो जाने
पर।
दासियों का कार्य गृहपत्नी की आज्ञानुसार उसके प्रत्येक कार्य में सहयोग करना था। कभी-कभी कार्य विशेष के लिए भी दासी रखी जाती थी। ऐसी दासियों को विशिष्ट संज्ञा दी जाती थी-जैसे कुम्भदासी, प्रेषणकारिका आदि । सती प्रथा और जैन धर्म :
उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रुप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम देखें तो स्पष्ट रुप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जलादी गयी हो।
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