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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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उपासक दशा में श्रावक के स्वपत्नी सन्तोषव्रत के अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उसमें "परविवाहकरण” को अतिचार या दोष माना गया है। "परविवाहकरण" की व्याख्या में उसका एक अर्थ दूसरा विवाह करना बताया गया है। अतः हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जैनों का आदर्श एक पत्नीव्रत ही रहा है ।
बहुपत्नी प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी । आवश्यक चूर्णि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे। किन्तु उनके दूसरा विवाह इसलिए आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से आवश्यक था । किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रुप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रुप से स्त्री के प्रति अनुग्रह की भावना के आधार पर नहीं, अपितु अपनी काम वासनापूर्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गई। यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैन धर्म सम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा। जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरूष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करनेके पश्चात् बहु विवाह करता है । यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो है कि मुनिव्रत या श्रावक व्रत स्वीकार करने के अनेक गृहस्थोपासकों को एक से अधिक पत्नियाँ थी । किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एक पत्नी प्रथा को ही माना जाता था। उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक ही एक से अधिक पत्नियाँ थीं। शेष सभी को एक-एक पत्नी थी, साथ ही उसमें श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नी सन्तोषव्रतका एक अतिचार परविवाहकरण है । यद्यपि कुछ जैनचार्यो ने "परविवाहकरण" का अर्थ स्वसन्तान के अतिरिक्त अन्यों की संतानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है, किन्तु उपासकदशांग की टीका में आचार्य अभयदेवने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते है कि धार्मिक आधार पर जैन धर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है । बहुपत्नी
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उपासक दशांग, अध्याय-, पृ. ४२
वही, अभयदेव कृत वृत्ति, पृ.४३
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