________________
१३८
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन बाल-विवाह :
उस काल में बाल-विवाह की प्रथा का भी प्रारंभ हो गया था तथा नियोग की प्रथा भी प्रचलित थी। पति के मर जाने पर स्त्री देवर के साथ नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर सकती है। यदि पति जीवित हो, तो भी स्त्री पति की अनुमति से नियोग कर सकती थी। पाण्डवों की माता कुन्ती ने युधिष्ठिर आदि जो पुत्र उत्पन्न किये थे, वे नियोग द्वारा ही उत्पन्न हुए थे। इसके लिए उसे उसके पति पाण्ड ने आदेश दिया था। पाण्डु स्वयं सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ था। जैन-युग में विधिपूर्वक विवाह तो होता ही था, साथ ही उक्त अवसर पर उचित दहेज भी दिया जाता था। विशेषता यह भी थी कि उक्त दहेज वर का पिता अपने पुत्र एवं पुत्र वधू को देता था। दहेज में जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ रहती थी।
___ सामान्यतया पुनर्विवाह का प्रचलन नहीं था किन्तु वैश्य एवं निम्न वर्ग में कन्याओं का यदाकदा पुनर्विवाह भी हो जाता था। ऐसे विवाह उस परिस्थिति में होते थे जब कन्या पति द्वारा छोड दी जाती थी। समाज में विवाह विच्छेद भी पाया जाता था किन्तु नारी की अपेक्षा नर ही इसका प्रयोग अधिक करता था। बहुपतित्वप्रथा का प्रायः अभाव था जब कि बहुपत्नीत्व-प्रथा अपनी चरम सीमा पर थी। बहुपति और बहुपत्नी प्रथा :
. विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है। इसके दो रुप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोडकर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक पति-प्रथा की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्य पूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकुमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रभाव पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चयकर) लिया था। अतः इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया। किन्तु दूसरी और पुरूष के सम्बन्ध में बहुपत्नीकी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है। इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरूषों को बहु विवाह करते दिखाया गया हैं। दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है।
१.
ज्ञाता धर्म कथा, उत्क्षिप्त नामक अध्याय-१६, पृ.४६७, सम्पादक-शोभचन्द्र भारिल्ल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org