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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन आज राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा संकट हैं। राष्ट्रीय चेतना को जागृत करना हो तो मानव के गुण ही मानव को उन्नत्त-श्रेष्ठ बना सकता है, वही मानव एक दिन देव स्वरुप धारण कर लेता है। "जय महावीर" काव्य में इसी भाव को प्रगट करते हुए लिखते हैं -
गुण ही मानव को मानव से उन्नत्त श्रेष्ठ बनाते हैं। अपनेपन को विकसित करके
मनुज देव बन जाते हैं। १ राष्ट्रीय-स्वाभिमान की कमी:
आज मनुष्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान की कमी हो रही है । राष्ट्रीय चेतना लुप्त हो रही है। अपने छोटे-से घोंसले के बाहर देखने की व्यापक दृष्टि समाप्त हो रही हैं। जब तक राष्ट्रीय स्वाभिमान जागृत नहीं होता, तब तक कुछ भी सुधार नहीं होगा । घरमें दुकान में या दफ्तर में कहीं भी आप बैठें, मगर राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथे बैठे। अपने हर कार्य को अपने क्षुद्र हित की दृष्टि से नहीं, राष्ट्र के गौरव की दृष्टि से देखने का प्रयत्न कीजिए। आपके अन्दर और पडोशी के अन्दर जब तक एक ही प्रकार की राष्ट्रीय चेतना जागृत होगी तब एक समान अनुभूति होगी और आप के भीतर राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग उठेगा -
व्यक्ति प्रमुख इकाई होती, राज समाज व्यक्ति से बनता। व्यक्ति की निर्मलता से ही, सर्व शुद्धता सानक तनता ॥ केवल व्यक्ति बने विकसित तो, सर्व समाज भी विकसित होता। राष्ट्र बनेगा पूर्ण शुद्ध फिर, सारा जगत उल्लसित होगा।
कवि "विद्याचंद्रसूरि" ने महावीर काव्य में भगवान की अमृतमय वाणी का उपदेश देते हैं कि जिसके जीवन में सत्य, अहिंसा और अनेकान्त रोम-रोम में व्याप्त हैं वही व्यक्ति कल्याण की मंजिल को प्राप्त कर सकता हैं, वही व्यक्ति राष्ट्रीय एकता का अनुभव कर सकता है -
"जय महावीर' : कवि माणकचन्दजी, पंचम सर्ग, पृ.५० “भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, "तीर्थंकर चिंतन", सर्ग-२१, पृ.२२८
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