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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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हिन्दी - कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में युग का जो यथार्थ अंकन किया है वह चिरस्मरणीय है । कविने क्रान्ति के स्वर में जयघोष कर देश को नई दिशा दी, 1 और साहित्य को नया रुप ।
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आज का मनुष्य दिशा -हीन सा उड़ता जा रहा है। जिसे रूकने की फुर्सत नहीं हैं, और सामने कोई मंजिल नहीं हैं। अपने क्षुद्र, स्वार्थ, दैहिक भोग और हीन मनोग्रंथियों से वह इस प्रकार ग्रस्त हो गया है कि उसकी विराट्ता उसके अतीत, आदर्श, उसकी अखण्ड राष्ट्रीय भावना सब कुछ लुप्त हो गई हैं । जो व्यक्ति सत्य, संयम, करूणा और समता को हृदयमें धारण करता है । वही व्यक्ति विश्व - विजय की उन्नत्त सीढ़ी पर चढ सकता है । किन्तु जो क्रोधाग्नि में दिन रात जलता रहता है वह मानव अखण्ड राष्ट्रीय एकता की भावना को जागृत नहीं कर सकता । परन्तु जीवन में सब कुछ खो देता है । afat काव्य में उस क्रोधान्ध व्यक्ति की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है -
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ऐसे ही पल में तो मानव निज बुद्धित्व को खो देता ।
आवेश भरा कुछ भी करता, सबकुछ एक बारे में खो देता ॥
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भारतीय चिन्तन ने मनुष्य के जिस विराट् रुप की परिकल्पना की थी वह आज कहाँ ? हजारों हजार चरण मिलकर जिस अखण्ड मानवता का निर्माण करते थे, जिस अखण्ड राष्ट्रीय चेतना का विकास होता था, आज उसके दर्शन कहाँ हो रहे हैं ? आज की संकीर्ण मनोवृत्तियाँ देखकर मन कुलबुला उठता है कि क्या वास्तव में ही मानव इतना क्षुद्र और इतना दीन-हीन होता जा रहा है कि अपने क्षुद्र स्वार्थी और अपने कर्तव्यों के आगे पूर्ण विराम लगाकर बैठ गया है। स्वयं का ही नहीं, पड़ोशी के प्रति भी कुछ कर्तव्य है, कुछ हित है। समाज, देश और राष्ट्र के लिए भी कोई कर्तव्य होता है, इसके लिए भी सोचिए । भारत का दर्शन नेति नेति कहता आया है, इसका अर्थ है कि जितना आप सोचते हैं ओर जितना आप करतें हैं उतना ही सब कुछ नहीं हैं, उससे आगे भी अनन्त सत्य है, कर्तव्य के अनन्त क्षेत्र पड़े हैं। मगर आज हम यह संदेश भूलते जा रहे हैं और हर चिन्तन कर्तव्य के आगे इति इति लगाते जा रहे हैं यह क्षुद्रता यह बौनापन
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'श्रमण भगवान महावीर": कवि योधेयजी, चतुर्थ सोपान, "क्रोध", पृ. १५०
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