SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन् १९४७ में जब हम आजाद हुए थे, उन दिनों में हमारे अन्दर राष्ट्रीयभाव गूँज रहा था जो हम सब को परस्पर जोडे हुए था । तब न रिश्वत की शिकायत थी, न भ्रष्टाचार की, किन्तु धीरे-धीरे वातावरण बदल गया। कुछ लोग शासक बन गए, कुछ अधिकारी और जब उन्होंने देखा कि कुछ अपने रिश्तेदार हैं, जान-पहचानवाले हैं, उनका भी कुछ काम बनना चाहिए तो भ्रष्टाचार फैलने लगा । हमारे अन्दर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण लुप्त होता गया। समस्या को हम राष्ट्रीय दृष्टि स्थान पर वैयक्ति के दृष्टि से देखने लगे । कवि ने काव्य के द्वारा हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त किया है - उपदेश यहीं था प्रभु का मानव मानव ही भाई । मानव के बीच घृणा की क्यों व्यर्थ खोदते खाई ॥ *** आज पैसा तो कमाते हैं, पर यह समझने लगे कि सार्वजनिक कार्यों में खर्च करना तो सरकार का काम है। पैसा उनके पास इकट्ठा होता जाता है और वे जनता के घृणापात्र बन जाते हैं। वर्ग विद्वेष, प्रान्तीय विग्रह इन्हीं घृणाओं के परिणाम हैं। इसका इलाज यही है कि हमारे भीतर राष्ट्रीय भावना जगे । हम अपने व्यक्तित्व को हीन नहीं समझे और अपने व्यक्तित्व को समान ही प्रत्येक व्यक्तित्व का आदर करें। मैं सोचती हूँ कि गांधीजी की रामराज्य की कल्पना को चरितार्थ करने के लिए सबसे पहले हमें राष्ट्रीय मूल्यांकन की पद्धति को बदलना होगा। दृष्टिकोण में परिवर्तित करना होगा। अपने व्यक्ति का विकास धन या सत्ता से नहीं, किन्तु अपने आत्मबल से करना होगा। इसी आधार पर समूचे राष्ट्र का मूल्यांकन आंकना होगा। राष्ट्रीय जीवन में संयम और चारित्र की प्रधानता स्थापित करनी होगी । तपोनिष्ठ बनना होगा । तप का १. २. " चरम तीर्थंकर महावीर " : कवि विद्याचन्द्रसूरि, पद- २५५, पृ. ६७ “ तीर्थंकर महावीर” : कवि गुप्तजी, सर्ग-८, पृ. ३४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy