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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
१२५ में छविमान हैं। बौद्ध त्रिपिटकों में भी उसकी स्वर्ण आभा सर्वत्र बिखरी हुई हैं। भारत के अतीत का वह गौरव सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समग्र विश्व के लिए एक जीवन आदर्श था। कवि रघुवीर शरण मित्र' ने “वीरायण' काव्य में अपने भावों को उद्बोधन करते हुए लिखा है -
जो त्यागी है, वह योद्धा है, जो क्षमाशील है वह वीर व्रती। जो सहनशील वह धरा गगन, युग-युग का सूरज धीरज व्रती।।'
*** भगवान महावीर का यह वचन कि देवता भी भारत जैसे आर्य देश में जन्म लेने के लिए तरसते हैं । इतिहास के उन पन्नों को उलटते ही एक विराट् जीवन दर्शन हमारे सामने उपस्थित होता है। त्याग, स्नेह और सद्भाव की वह सुन्दर तस्वीर खिंच जाती है, जिसके प्रत्येक रंगमें एक आदर्श, प्रेरणा और विराट की मोहक छटा भरी हुई है । त्याग
और सेवा की अखण्ड ज्योति जलती हुई प्रतीत होती है। कवि ने महावीर काव्य में अपने उद्गारों को व्यक्त करते हुए लिखा है।
समभाव भवो जन-जन में, जन-मन को शुद्ध बनाओ। तप और त्याग के जाकर घर-घर में दीप जलाओं॥२
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इस उज्ज्वल अतीत को देखते है तो मन श्रद्धा से भर आता है। भारत के उन आदर्श पुरूषों के प्रति कृतज्ञता से मस्तक झुक जाता है, जिन्होंने स्वयं अमृत प्राप्त किया और जो भी मिला उसे अमृत बाँटते चले गए। अतीत के इस स्वर्णिम चित्र के समक्ष जब हम वर्तमान भारतीय जीवन का चित्र देखते हैं तो मन सहसा विश्वास नहीं कर पाता कि क्या यह उसी भारत का चित्र है ? कवि रामकृष्ण शर्माजी भगवान महावीर काव्य में अपने हृदय के भावों को व्यक्त करते हुए लिखते हैं।
शश्य श्यामला पूर्ण धरा हो, हर उपवन में फूल खिलें। भेद भावको भूल सदाजन, प्रेम भावसे गले मिलें॥३
“वीरायण', कवि मित्रजी, सर्ग-१५ “युगान्तर'', पृ.३४९ "तीर्थंकर महावीर' : कवि गुप्तजी, सर्ग-८, पृ.३४७ "भगवान महावीर' : कवि शर्माजी, पृ.२
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