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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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या बुरा फल ईश्वर ही प्रदान करता है । जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता । वह कर्ता की स्वतंत्रता एवं स्वयं भोक्ता की सत्ता का स्वीकार करता है, अर्थात् जो कर्म करता है वही स्वयं उसके परिणाम को भोगता है । " जैसा बोएगे वैसा काटोंगे" का सिद्धांत स्वयं स्पष्ट होता है।
स्याद्वाद :
भारतीय दर्शनो में जैन दर्शन की विशिष्टता है, उसका मौलिक प्रदान अनेकान्त दर्शन । इस दर्शन को प्रस्तुत करने की शैली का नाम ही स्याद्वाद है ।
जैन वाङ्मय में इस स्यात का अर्थ " कथंचित्" अर्थात् अपेक्षा माना है और "वाद् " कथ्य का द्योतक है। इस तरह यों कहा जा सकता है कि एक निश्चित अपेक्षा किया गया कथन ही स्याद्वाद है । थोडा सा और गहरे उतरेंतो निश्चित अपेक्षा में एक निश्चित दृष्टिकोण या निश्चित विचारों का बोध निहित है । सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि वस्तु के जिस गुण की चर्चा प्रमुख रुप से हम कर रहे हैं उसमें अन्य गुण या स्वभाव भी विद्यमान हैं ही। इससे यह प्रतिफलित या सिद्ध होता है कि वस्तु में अनेक अर्थात् गुण विद्यमान हैं, एक अंश में सभी धर्म या स्वभाव पूर्ण हैं यह कथन असंभव है और ऐसा कथन अपूर्ण होगा। वस्तु एक ही निश्चित गुण धर्म स्वभावी है यह कथन ही एकांत दृष्टियुक्त है जो अन्य गुणों की उपस्थिति का अस्वीकार या तिरस्कार करता है। जो संघर्षो का जनक है। इसी वैचारिक या मानसिक संघर्ष को टालने के लिए वस्तु के अनेक स्वरूपी रुप को स्वीकार करते हुए उसे वाणी की शुद्धता भी जैनदर्शनों में प्रदान की ।
भगवान महावीर के अनेकान्तवाद सिद्धान्त का विश्लेषण करते हुए कवि ने काव्य में समझाया है कि एक ही वस्तु को अनेक गुणधर्मो में देखना अनेकान्तवाद है । एक ही दृष्टि से देखकर उसे पूर्ण मानना या समग्र मानना केवल भ्रम है। वस्तु का पूर्णरुप है उसी का ज्ञान करना आवश्यक है -
१.
एक दृष्टि नहीं पूर्ण हो सकी, उसे समग्र मानना भ्रम है। वस्तु का जो पूर्ण रूप है उसका परिज्ञान अतिकम है। है धर्मान्त अन्त वस्तु सब, व्यापक दृष्टि अपेक्षित होती । एक बारमें एक रूप की सीमित दृष्टि सापेक्षित होती । १
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"भगवान महावीर” : कवि शर्माजी, "तीर्थंकर चिंतन", सर्ग-२१,
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