________________
११२
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन जैसे पावक में तपने से अलग-अलग सोना प्रस्तर है। उसी पृथक् पृथक् हो सकते जीव जुड़े पुद्गल स्तर है। कर्म साथ जो बद्ध जीव, मन वचन काय स्पंदन होता। नये नये कर्मों का आश्रव उससे करता जैसे॥
***
कर्म के आठभेद हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। जैसे बादल से आच्छादित सूर्य की पवित्र तेज प्रभा ढकजाती है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव का ज्ञान और दर्शनगुण ढक जाता है । कविने मोहनीय आदि कर्म की व्याख्या करते हुए जन-जगत को यही उद्बोधन दिया है कि -
वेदनीय सुखदुःख का अनुभव, इन्द्रियगण को ही होता है। जैसे गुड़ से लिप्त अस्त्र हो, मिष्ट और कटु हँस रोता है।
*** मोहनीय मोहित करता है, जैसे मद हो मद्यपान का। क्रोध दोष होते उत्पादित, कर विनाश ये मोक्ष ज्ञान का ॥२
***
आयु कर्म श्रृंखलावतरुप, रोके रखता आत्म तत्व शुचि ॥ नाम कर्म ज्यों चित्रकार रुप, योनि योनि में नामांकित रुप ॥ गोत्र कर्म ज्यों कुम्भकार रुप, उच्च निम्न कुल रहे ढालता। अन्तराय फिर भंडारी रुप, दान आदि में विध्न डालता॥३
***
जैन धर्म और अन्य धर्म विशेषकर वैदिक दर्शन में कर्म, कार्यकलापों एवं तत्जन्य परिणामों को लेकर मूलभूत अंतर है। वैदिक दर्शन में ईश्वर को जगत का कर्ता व नियन्ता माना गया है। वहाँ जीव यद्यपि कर्म करने में स्वतंत्र है पर, परिणाम या दाता या फलभोक्त वह स्वयं नहीं । कर्म का फल इश्वर देता है । कृत कर्मों के अनुसार अच्छा
"भगवान महावीर': कवि शर्माजी, "तीर्थंकर चिंतन'', सर्ग-२१, पृ.२२२ वही १.२२३
२-३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org