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१
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
कवियों ने काव्य में सृष्टि की रचना के विषय को तर्क सहित समझाते हुए स्पष्ट लिखा है
दृश्य और अदृश्य जगत यह स्वयंमेव निर्मित आधार। नहीं विधाता इसका इश्वर परिवर्तित यह बारम्बार ।। मूल भूत घट द्रव्य स्वयंपर निखिल सृष्टि के उपादान । इन के स्वयं रची यह संसृति जड़-चेतन के भिन्न विधान॥
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हे भव्यो ! जीव-अजीवों का, समुदाय जगत कहलाता है। औ पुग्दल धर्म अधर्म काल, आकाश अजीव कहाता है। २
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वैदिक ऋषि विश्व के संबंध में संदिग्ध रहे हैं। उनका अभिमत है कि प्रलय दशा में असत् भी नहीं था सत् भी नहीं था, पृथ्वी भी नहीं थी, आकाश भी नहीं था। आकाश में विद्यमान सातों भुवन भी नहीं थे। जैन दर्शन विश्व के संबंध में किचित् मात्र भी संदिग्ध नहीं हैं। उसका स्पष्ट अभिमत है कि चेतन से अचेतन उत्पन्न नहीं होता और अचेतन से चेतन की सृष्टि नहीं होती । किन्तु चेतन और अचेतन ये दोनों अनादि हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि यह लोक अति व्यापक है, विस्तृत है। मनुष्य मर्यादित क्षमतावश इस विशाल विश्व को एक सीमित अंश के साथ ही परिचय स्थापित कर पाता है। भगवतीसूत्र में विश्व की स्थिति के विषय में भी विवेचन मिलता है। इस लोग की सीमा के चारों और असीम लोकाकाश है। यह जगत रचना इतनी विशाल है कि आधुनिक विज्ञान इसके लघुतम अंश को भी नहीं जान सका। कर्मवादः
कर्म सिद्धांत या कर्मवाद जैन दर्शन का प्राण सिद्धांत है । स्याद्वाद की नींव पर ही इस की इमारत अवस्थित है । कर्म का यह सिद्धांत जैन दर्शन की वैज्ञानिकता पर प्रकाश डालता है। प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता एवं कर्मठता इसी से सिद्ध हो सकती है । कविने काव्य में कर्म सिद्धांत को दृष्टांत सहित सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है
“भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “तीर्थकर चिंतन", सर्ग-२१. प.२२० २. “परमज्योतिमहावीर', कवि सुधेशजी, सर्ग-२०, पृ.',२७
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