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जगत :
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
विविध विषमतायें क्यों जगमें पैदा की है पूर्ण पुरुषने । रागद्वेष से यहि वह इश्वर दुःखी किसी को सुखी किसी को । स्वेच्छा से निर्मित करता यदि अमुख किसी को मुखी किसी को ।'
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तब रागी को इश्वर कहना, उचित नहीं होता प्रतित है । द्वेषी को भी इश्वर कहना ज्ञान अंधता की अनीति है ॥ कर्म फलों से ही यदि इश्वर दुःखसुख को निश्चित करता है । तब इसमें भी कर्म बड़प्पन सर्वशक्तिमत्ता हरता है ।। १
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संसार की रचना के विषय में जैन धर्म संपूर्ण स्पष्ट है। विश्व में जो कुछ भी परिवर्तन दिखाई दे रहा है; वह परिवर्तन जीव और पुद्गल के संयोग से होता है। वह परिवर्तन दो प्रकार का है - स्वाभाविक और प्रायोगिक ।
स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होने से चर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं देता, किन्तु प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होने से दिखाई देता है। जीव अनादिकाल से पुद्गल का संपर्क प्राप्त करता है और इस संसार का चक्र निरंतर चलता रहता है।
जैन दर्शन की दृष्टि से उत्पाद व्यय और प्रोव्य की त्रिगुणात्मक संरचना संसार की उत्पत्ति निरंतर क्षय एवं नव सृजन में महत्वपूर्ण अंश है। एक स्वभाव रुप उत्पाद् प्रोयुक्त गुण पर्यायवान सत् द्रव्य कहलाता है। अर्थात् जो मौलिक पदार्थ अपने पर्यायों को क्रमशः प्राप्त हो वह द्रव्य है । द्रव्य उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त है । यह भी कहा सकता है कि गुणों के समुह को द्रव्य कहते हैं । गुण के दो भेद होते हैं। जो सब द्रव्यों व्याप्त है वह सामान्य गुण है और जो सब द्रव्यों में व्यप्त न हो वह विशेष है ।
सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रुप से उत्पाद-व्यय करते रहते हैं । चेतन हो या अचेतन सभी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के आधिन है । कहने का तात्पर्य य है कि वस्तु का मूल रूप कभी नष्ट नहीं होता है अर्थात द्रव्यत्व का सर्वदा अस्तित्व है । और विशेष बात यह है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में गुणोत्पाद नहीं कर सकता है। इस प्रकार सभी द्रव्य अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं
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"भगवान महावीर " : कवि शर्माजी, "तीर्थंकर चिंतन",
, सर्ग - २१, पृ.२२१.
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