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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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का रमणीय कल्पवृक्ष इन तीनों परंपराओं के आधार पर ही सदा फलता फूलता रहा है। इन तीनों परम्पराओं ने अत्याधिक सन्निकटता न भी रही हो । तथापि अत्यंत दूर भी नहीं थी। तीनों ही परंपराओं के साधकों ने साधना कर जो गहन अनुभूतियाँ प्राप्त की, उनमें अनेक अनुभूतियाँ समान थी तो कई अनुभूतियाँ असमान भी थी। इन दोनों संस्कृतियों
भेद पुष्ट करने के लिए हम अवैदिकों को पाते हैं। इनमें कतिपय वैदिक संस्कृति से प्रभावित है, अन्य अवैदिक श्रमणों के विषय में श्वेताम्बर मतानुयायी ग्रंथ सुयागद तथा बौद्ध ग्रंथ दीर्घनिकाय में श्रमण फलसुत्त में वर्णन किया गया है।
महावीर - प्रबंधो में जैन दर्शन
भारतीय दर्शन के वैदिक व श्रमण दर्शन में कुछ मौलिक भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं। भगवान महावीर सम्बन्धी हिन्दी के उपलब्ध प्रबंधो में इस दर्शन वैशिष्ट को कवियों ने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। यहाँ संक्षेप में मैं उस वैचारिक भिन्नता व साम्य को प्रस्तुत कर रही हूँ -
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ईश्वर :
वैदिक दर्शन की मान्यता है कि ब्रह्मा संसार का सृष्टा है । और काला सारा संसार प्रलय की गोद में समा जाता है। भगवान अवतार लेता है । वह लीलायं करता है और पश्चात् अपने नियत धाम में चला जाता है। जैनदर्शन सर्व प्रथम तो सृष्टि काकर्ता किसी व्यक्ति विशेष को नहीं मानता साथ ही अवतार का स्वीकार नहीं करता ! जैन धर्म में प्राणीमात्र समान है। संसार का प्रत्येक प्राणी साधना के द्वारा दुष्ट कर्मो का क्षय कर के मुक्त आत्मा बन सकता है। मुक्तात्माका विवेचन करते हुए भगवान महावीर ने आचारंग सूत्र में कहा है- मुक्तात्मा जन्म-मरण के मार्ग को सर्वथा पार कर जाता है। मुक्ति में रमण करता है। उसका स्वरुप प्रतिपादन करने में समस्त शब्द हार मान जाते हैं । वहाँ तर्क का प्रवेश नहीं होता, बुद्धि अवगाहन नहीं करती । वह मुक्तात्मा प्रकाशमान है । वह न स्त्री रुप है, न पुरुषरुप है, न अन्यथा रुप है। वह समस्त पदार्थो का सामान्य और विशेष रुप से ज्ञाता है। उसकी कोई उपमा नहीं है। वह अरुपी सत्ता है। उस अनिर्वचीय को किसी वचन के द्वारा नहीं कहा जा सकता। वह न शब्द है, न रुप है, न रस है, न गंध है और न स्पर्श है ।
हिन्दी - प्रबंधकार कवियों ने ईश्वर संबंधी कल्पना को काव्यों में संक्षेप में प्रस्तुत किया है
“सफल बनाये सुखी क्यों नहीं, क्यों कुछ दुःखी बनाये उसने
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