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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन इस प्रयत्न में बहुत कुछ सफल होता है वह श्रमण संस्कृति का सच्चा अनुयायी है। हमारी ऐसी वृत्तियों जो उत्थान के स्थान पर पतन करती है, शान्ति के बजाय अशान्ति उत्पन्न करती है, उत्कर्ष कही जगह अपकर्ष लाती है, वे जीवन को कभी सफल नहीं होने देती। ऐसी अकुशल वृत्तियों को शान्त करने से ही सच्चे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार की कुवृत्तियों को शान्त करने से ही आध्यात्मिक विकास हो सकता है। श्रमण संस्कृति के मूल में शम और सम से ये तीनों ही तत्व विद्यमान हैं। श्रमण परम्परा के सूचक शब्द वैदिक साहित्य में वातरशना, मुनि, व्रात्यं, यति एवं ब्रह्मचारी आदि नामो मिलता है । यद्यपि दोनों परंपरा के मुनियों की चर्याओं में बहुत ही अन्तर रहा हैं।
___वैदिक, जैन एवं बौद्ध तीनों धाराओं में सन्यासी के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में परस्पर अनेक बातों में समानता रही है तो अनेक बातों में विभिन्नता भी है। वैदिक और श्रमण परम्परा के ग्रन्थों के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि सन्यासी को व्रतों के अन्तर्गत सत्य का पालन करना, संयम तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने के साथ तप, स्वाध्याय एवं ध्यानादिका अभ्यास मुख्य तत्व है। भिक्षाचार्य के द्वारा जीवन निर्वाह करना और प्राणायाम का अभ्यास दोनों धर्मो में मान्य हैं। दोनों धर्मों में संन्यास का अर्थ ऐषणाओं से विरक्त रहकर निस्पृह भाव से रहना माना गया है।
दोनों परम्पराओं में पुरूषों के सदृश स्त्रियों को भी संन्यास ग्रहण करने का अधिकार था । जैसे जैन राजीमती एवं बौद्ध भिक्षुणी धम्मदिन्ना दोनों अपने पति की प्रव्रज्या ग्रहण करते देखकर स्वयं भी प्रवज्या धारण की। इसी प्रकार बृहदारण्यकोपनिषद में मैत्रेयी अपने पति को प्रव्रजित होते देखकर स्वयं भी संन्यासिनी हो गयी। वैदिक और श्रमण परम्पराओं में संन्यासी के लक्षण के अन्तर्गत उसे निष्कलंक, मोह, राग एवं द्वेष के प्रति अनासक्त एवं भिक्षावृत्ति का पालन करनेवाला बताया गया है।
इस प्रकार वैदिक परम्परा के समान श्रमण परम्परा में भी सत्य, अचौर्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप, ध्यान, स्वाध्याय, संयम, अनशन एवं प्राणायाम आदि व्रतों का वर्णन मिलता है । इन व्रतों का संन्यासी जीवन में अत्याधिक महत्व है, क्योंकि इनसे ही संन्यासी इन्द्रियों एवं मन को वश में करके काम, क्रोध, भय, मद, लोभ आदि दुष्प्रवृत्तियों को दूर करके परिशुद्ध होता है और परमात्म स्वरुप की प्राप्ति करने में समर्थ होता है।
भारतीय संस्कृति विश्व की महान संस्कृति है। यह संस्कृति सरिता की सरस धारा की तरह सदा जनजीवन में प्रवाहित होती रही है। इस संस्कृति का चिंतन जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीन धाराओं से प्रभाविक रहा है। यहाँ भी संस्कृति और सभ्यता
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