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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन १०७ प्रति साम्य । ऐसी समता कि जिसमें न केवल मानव समाज या पशु-पक्षी समाज ही समाविष्य हो, अपितु वनस्पति, जैसे अत्यंत सूक्ष्म समूह का भी समावेश हो । यह दृष्टि विश्वप्रेम की अद्भूत दृष्टि है । विश्वका प्रत्येक प्राणी, चाहे वह मानव हो, पशु-पक्षी हो, कीट, वनस्पति हो या अन्य क्षुद्र जीव हो सभी आत्मवत् समान है। किसी भी प्राणी का वध करना अथवा उसे कष्ट पहुँचाना आत्मपीड़ा के समान है। “आत्मवत् सर्व भूतेषु" भूमिका पर प्रतिष्ठित यह साम्यदृष्टि श्रमण परम्परा का प्राण है। सामान्य जीवन को ही अपना चरम लक्ष्य माननेवाला साधारण व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुँच सकता। यह भूमिका स्व और पर के अभेद की पृष्ठभूमि है। यही पृष्ठ भूमि श्रमण- - संस्कृति का सर्वस्व है । " - श्रमण के लिए प्राकृत साहित्य में “समण" शब्द का प्रयोग हुआ है । जैन सूत्रों में जगह-जगह 'समण' शब्द आता है। जिसका अर्थ होता है साधु । उक्त समण शब्द के तीन रुप हो सकते हैं- श्रमण, समान और शमन । श्रमण शब्द श्रम धातु से बनता है। श्रम का अर्थ होता है परिश्रम करना । तपस्या का दूसरा नाम परिश्रम भी है। जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं । 'समण' का अर्थ होता है समानता । जो व्यक्ति प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखता है, विषमता से हंमेशा दूर रहता है जिसका जीवन विश्वप्रेम और विश्व बंधुत्व का प्रतीक होता है, जिसके लिए स्व-पर का भेदभाव नहीं होता, जो प्रत्येक प्राणी से उस भाँती प्रेम करता है जिस प्रकार खुद से प्रेम करता है, उसे किसी के प्रति द्वेष नहीं होता और न किसी के प्रति राग ही होता है। वह राग-द्वेष की तुच्छ भावना से उपर उठकर सब को एक दृष्टि से देखता है। उसका विश्वप्रेम घृणा और शक्ति की छाया से सर्वथा अछूता रहता है । वह सबसे प्रेम करता है । किन्तु उसका प्रेम राग की कोटि में नहीं आता। वह प्रेम एक विलक्षण प्रकार का प्रेम होता है, जो रागद्वेष दोनों की सीमा से परे होता है । राग और द्वेष साथ-साथ चलते हैं, किन्तु प्रेम अकेला ही चलता है । “शमन" का अर्थ है - शांत करना । जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को शान्त करने का प्रयत्न करता है, अपनी वासनाओं का दमन करने की कोशिश करता है और अपने २. भगवती सूत्र, १, ६, ३८३ श्राम्यन्ती श्रमणा : तपस्यन्तीत्यर्थ: दशवैकालिक वृत्ति-१-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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