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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
कवि ने अंधो का दृष्टान्त देकर जन मानस को अनेकान्तवाद का स्पष्टीकरण करते हुए उद्बोधन दिया है कि कुछ अन्धों ने जब हाथी को जानना चाहा कि यह किस प्रकार प्राणी है, तो वे उसे हाथ से स्पर्श कर अनुभव करने लगे, सभी ने अपनी अपनी बुद्धि से विचारा । एक उसके कान को स्पर्श किया और कहा हाथी सूप के समान है । दूसरे ने उसके पैर पर अच्छी तरह हाथ फिराकर कहा हाथी स्तंभ के समान है । जिस व्यक्ति ने धड़ को देखा तो समझा कि हाथी दिवार के समान है, सूंड को पकड़ा तो अजगर के समान तथा किसीने पूँछ को हाथ लगाया तो हाथी रस्सी समान लगा है।
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कवि का कथन है कि हाथी ये ही है, परन्तु उसके भिन्न अवयव हैं, उससे तुम सब अनजान हो । एक ही अंश पर आग्रह करके रहने पर कभी पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। केवल हाथी के एक अंग को देखकर कहने से सबका एक मत कैसे मिल सकता है ? अपनी अपनी बात को खींचने में ही लड़ाई है। सीमित दृष्टि में ही तनाव है, व्यापक दृष्टि में नहीं। एक ही व्यक्ति किसी का पुत्र, भाई, भतीजा और पिता हो सकता है । अपने अपने स्थान पर सभी सही हैं । विरोध में ही झगड़ा है, समन्वय में शान्ति । जैसे कवि ग्वालिन का दृष्टान्त देते हुए बताते हैं कि
दृष्टिकोण हो ग्वालिन जैसा, दधिको जैसे मथती है। कर्षित रज्जु वाम कर से तो, दायेकी आगे बढती है । दोनों हाथ रज्जु को खींचे तो कैसे दधि मंथन होगा । बिना समन्वय बात बिगडती तर्कोंका ही ग्रन्थन होगा ॥ १
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प्रायः अनेकान्तवाद और स्याद्वाद् को परस्पर पर्यायवाची मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा मानना समीचीन नहीं है। अनेकान्त एक विचार पद्धति है, एक दृष्टिकोण या मनोवृत्ति जब कि इस मनोवृत्ति की निर्दोष अभिव्यक्ति स्याद्वाद् हैं । अनेकान्त सिद्धांत पक्ष है और स्याद्वाद् उसका व्यवहार पक्ष है । स्याद्वाद को सप्तभंगी से जाना जाता है अर्थात् स्याद्वाद् के सात प्रकार हैं । कविने काव्यों में उसका पृथ्थकरण प्रस्तुत करते हुए वर्णन किया हैं
कदाचित् है, कदाचित नहीं दोनों होते साथ।
अकथनीय है पुनः कदाचित् अकथ्य पर है वह स्यात् ।
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'भगवान महावीर” : कवि शर्माजी, “तीर्थंकर चिंतन", सर्ग - २१. पृ.२२६.
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