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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
वैदिक और श्रमण परम्परा
वैदिक धर्मानुयायी संप्रदाय का विरोधी श्रमण संप्रदाय माना गया है। सम्भवतः वैदिक संप्रदाय से पूर्व किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व मौजूद था । श्रमण संप्रदाय की शाखाएँ प्रशाखाएँ अनेक थी, जिनसे सांख्य, बौद्ध, जैन, आजीवक आदि के नाम सुविदिति हैं। कालान्तर में जो वैदिक संप्रदाय की विरोधी भी वे एक दूसरे कारणों से धीरे धीरे वैदिक संप्रदाय धुलमिल गयीं। उदाहरण के तौर पर हम वैष्णव और शैव संप्रदाय को ले सकते हैं। पुराने वैष्णव और शैव ग्रंथ केवल वैदिक संप्रदाय से भिन्न ही न थे, अपितु उसका विरोध भी करते थे । और इस कारण के वैदिक संप्रदाय के समर्थक आचार्य भी पुराने वैष्णव और शैव ग्रंथों को वेद विरोधी मानकर उन्हें वेदबाह्य मानते थे। पर आज हम देख सकते हैं कि उन्हीं वैष्णव और शैव संप्रदाय की शाखा प्रशाखा बिलकुल वैदिक संप्रदाय में सम्मिलित हो गई हैं। यही स्थिति सांख्य संप्रदाय की है, जो पहले अवैदिक माना जाता था, पर आज वैदिक माना जाता है। ऐसा होते हुए भी कुछ श्रमण संप्रदाय ऐसे है जो खुद अपने को अवैदिक मानते - मनवाते है और वैदिक विद्वान भी उन संप्रदायों को अवैदिक ही मानते आए हैं ।
भारतीय संस्कृति अनेक प्रकार के विचारों का विकास है । इस संस्कृति में न कितनी धाराएँ प्रवाहित हो रही है। अनेकता में एकता और एकता में अनेकता यही हमारी संस्कृति की प्राचीन परंपरा है। यहाँ पर अनेक प्रकार की विचार धाराएँ बही । प्राचीनता और नवीनता का संघर्ष बराबर होता रहा। इस संघर्ष में नवीनता और प्राचीनता दोनों का ही यथोचित सम्मान होता रहा। किसी समय प्राचीनता को विशेष सम्मान मिला तो कभी नवीनता का विशेष आदर हुआ। दोनों एक दूसरे से प्रभावित भी होते रहे, और वह प्रभाव काफी स्थायी भी होता रहा । विविधताओं के वैसे तो अनेकरूप रहे हैं, किन्तु ये सारी विविधताएँ दो रूपों में बाँटी जा सकती है - एक वैदिक परंपरा और दूसरा अवैदिक परंपरा । श्रमण वेद का प्रमाण स्वीकार नहीं करते थे । उसके क्रियाकलापों को महत्व नहीं देते थे । इनकी दृष्टि में या तो इनके क्षुद्र फल हैं या ये निरर्थक और निष्प्रयोजनीय है । श्रमण आस्तिक तथा नास्तिक दोनों प्रकार के थे। कई संप्रदाय तपस्या को विशेष महत्व देते थे । जो आस्तिक थे, ये भी जगत का कोई स्त्रष्टा, या कर्ता नहीं मानते थे । पालिनिकाय में जिन श्रमणों का उल्लेख है वे प्रायः नास्तिक ही हैं।
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प्रकार भारत में मुख्य रूपसे श्रमण और वैदिक ये दोनों परंपरा प्रागैतिहासिक काल से विकसित होती चली आ रही हैं। श्रमण संस्कृति में समाजोद्धारक श्रमण ऋषभदेव
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