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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन १०५ वैदिक काल में ही हुए। उसी संस्कृति में इसी मत को जैन नामाभिधान प्रदान करनेवाले महावीर हुए । एवं महान श्रमण गौतमबुद्ध बौद्ध संस्कृति के प्रवर्तक हुए। जिन्होने श्रम, संयम और त्याग इन तीन प्रमुख विशेषताओं से इस संस्कृति को लोकप्रिय बनाया। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जीने श्रमण धर्म को वैदिक चिन्तनधारा का ही अंग माना है। तप के द्वारा ऋषि सत्य का साक्षात् अनुभव करने की क्षमता रखता है। तप से ही विश्व की रचना व उत्पत्ति बतलाई गई है। मेगस्थनीज ने अपनी भारत यात्रा के समय दो प्रकार के दार्शनिकों-ब्राह्मण और श्रमण का उल्लेख किया है। उस युग में श्रमणों का बहुत आदर किया जाता था। मेगस्थनीज ने श्रमणों के वर्णन में कहा है कि वे वन में रहते थे, सभी प्रकार के व्यसनों से अलग थे । राजा लोग उसको बहुत सन्मान देते थे और वे देवताओं की भाँति उनकी स्तुति एवं पूजा करते थे। गोविन्द, राजीय रामायण भूषण में श्रमणों को दिगम्बर कहा है। ब्राह्मण ग्रंथों में श्रमण का उल्लेख है। इस प्रकार इस श्रमण संस्कृति को ही जैन धर्म का पूर्व रुप कहा जा सकता है तथा भगवान ऋषभदेव का इस श्रमण (जैन)विचारधारा के प्रवर्तक के रुप में श्रीमद् भागवत में उल्लेख हैं। ४ ये भी मरुदेवी तथा नाभिराजा के पुत्र भगवान ऋषभदेव ही थे। वैदिक परम्परा: वैदिक और श्रमण परम्पराओं में उतना ही अन्तर है जितना भोग और त्याग, हिंसा और अहिंसा, शोषण और पोषण, अन्धकार और प्रकाश में अन्तर है। एक धारा मानव जीवन के बाह्य स्वार्थ का पोषण करती है तो दूसरी धारा मनुष्य के आत्मिक विकास को बल प्रदान करती है। एक का आधार वैषम्य है तो दूसरी का आधार साम्य है। अतः वैदिक और श्रमण परंपरा का वैषम्य एवं साम्यमूलक इतना अधिक विरोध है कि महाभाष्यकार पतंजलिने अहिनकुल एवं गौ-व्याघ्र जैसै शाश्वत विरोधवाले उदाहरणों में वैदिक श्रमण को स्थान दिया। जिस प्रकार अहि और नकुल, गौ और व्याघ्र में जन्मजात विरोध है। आचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रंथ में बातका समर्थन करते है। इन I or in x j w ट्रांसलेसन आफ दि फ्रेगमेन्ट्स आफ दि इण्डिया आफ मेगस्थनीज-१८४६ पृ.१०५ । श्रमणाः दिगम्बराः श्रमणा (वातरसनाः) शतपथ १४-७-१-२२ तैतिरीया आ. २-७-१ श्रीमद् भागवत् ५-३-२० महाभाष्यकार-२-४-९ सिद्धहेम -३-१-१४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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