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________________ ९७ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन कल्याणी यशोदाः वियोगिनी यशोदा की भावभूमि उर्ध्वगति प्राप्त करती है। अपनी भावाभिव्यक्ति करती हुई कहती है कि जीवन में त्याग ही सबसे बड़ा धन है। उसके बिना किसने फल पाया ? बिना तपे उर्वरता कैसे आ सकती है ? जिस प्रकार धरती के तपने से ही बीज उत्पन्न होता है, सूरज के तपने से ही मेघ उत्पन्न होता है उसी प्रकार मेरे स्वामी के तप तपने से ही जगत सुखी हो सकेगा। वे भावुकता मे यही सोचती है कहीं मैं बदली बनी जाती तो सारी धूप निज उर में झेलती और शीतल बन प्रभु पर तन जाती। प्रियतम की सहयोगी बनकर साथ चलने की आकांक्षा करती है, जिससे पतिदेव को कष्ट न पहुँचे तुम तप करने को जाते हो, मैं बदली बनकर साथ चली। तुम को न धूप लगने पाये, इसलिए धूप में स्वयं बनी। प्रभु तुम जिस पथ से जाओगे, मेरी काया छाया होगी। मेरे प्रभु बाल-ब्रह्मचारी, पूजा मेरी माया होगी।' *** पति की शुभेच्छा (जनकल्याण की भावना): यशोदा के हृदय के अंतःस्थल को छूकर बाहर निकलती हुई ध्वनि मानो कहती है कि-हे ज्ञानेश्वर! आप जगत का भला करो, जीव मात्र की बला हरकर सबको सुखी करो। मैं जगत के हित के लिए दुःख सहन कर लूँगी किन्तु मेरी चिन्ता मत करना मैं आपके बिना किसी भी प्रकार से रह लूंगी। आपका मार्ग मंगलमय हो। हे प्रभु ! मैं यही चाहती हूँ कि आपके गुण गाकर पुण्य को बढाऊँ। सदैव आपकी पूजा करती रहूँ। मेरा शुभ दिन, शुभ घड़ी कब आये, कि मैं आपके दर्शनकर धन्य हो जाऊँ और आपके चरणों में न्योछावर होकर आपमें ही खोजाऊँ। भगवान तुम्हारे गुण गा गा, कुछ अपने पुण्य बढाऊँगी। भगवान तुम्हारे चरणों में पूजा के पुष्प चढाऊँगी। मेरे स्वामी दर्शन देगें, मैं धन्य हो जाऊँगी। चरणों में न्योछावर होकर, उनके पथ में खो जाऊँगी ॥२ *** | १. २. “वीरायण' : कवि मित्रजी, “वनपथ', सर्ग-१०, पृ.२५५ वही, पृ.२५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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