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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन हे स्वामी ! मुझे दर्शन कब देओगे ? मैं विरह के अगाध समुद्र में डुबी हुई हूँ। आप कब तक आकर पार उतारोंगे ? जल बिन मछली का तडपना, चक्रवा के बिना चक्रवी का रातभर वियोग में क्रंदन करना एक स्वयं की अनुभूति है। स्वयं का दुःख स्वयं वैसे ही जान सकता है जैसे व्यक्ति पैर की बिबाई फटने पर ही पीड़ा का अनुभव किया जा सकता है। हे सखि ! मैं तेरे पैर पड़ती हूँ बिना पिता की गोद पुत्री को उज़ड़ी उज़ड़ी दिखाई देती है। बिना वृक्ष की बेल की तरह मुझ अभागिन की स्थिति ऐसी है, जैसे पिंजड़े में पड़ी हुई पक्षिणी । अपनी व्यथा कहना असंभव है औरों का उपहास सरल है, स्वयं भोगता तभी मानता। फटी नहीं हो पैर बिबाई, नहीं जानता पीर पराई॥ पिंजड़े में हो बंध पक्षिणी, व्यथा नहीं कह पाती। चुप चुप रोती है उर में ही, बिना तेल के ज्यों बाती। २ *** कभी अनिल से प्रिय का संदेश लाने को कहती है तो कभी नभ की परि से। है चंद्रमा ! यहाँ क्यों चमकता है। जहाँ मेरे देव है वहाँ जाकर प्रकाश कर। अपनी व्यथा को सभी को अलग-अलग कहती हुई अपने प्रियतम का संदेश पूछती है। हे प्रभु ! मैं नारी आपको भूल नहीं सकती। मैं आपके लिए प्रतिदिन यही मंगल कामना करती हैं कि आपका तप सफल हो और सबका कल्याण हो । आप तपस्या की अग्नि में तपकर सबकी जलन दूर करेंगे। कविने यशोदा की विहर वेदना का वर्णन किया है वह लौकिक न होकर अलौकिक प्रेम है, क्योंकि महावीर साधारण पुरूष नहीं थे और उनके साथ सम्बन्ध नारी सामान्य नहीं थी। यशोदा को महापुण्योदय से भगवान की प्रिया बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यशोदा के भगवान के प्रति अनुनय विनय में उनके अन्तर की निश्चल और अलौकिक भावना प्रकट होती है। वह अपने प्रियतम को किसी न किसी प्रकार प्राप्त करना चाहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण-कण में उसे खोजने का प्रयास करती है, "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “यशोदा विरह', सर्ग-१५ पृ.१६४ वही २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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