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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन यशोदा की आँखों से आँसूओं की वेगवती धारा प्रवाहित हो रही थी। सर्वत्र जनता में निराशा छा गयी थी। उधर विस्तृत राज-पाट सब को ठुकराकर स्व-पर कल्याण के लिए संयम तथा तपस्या के महा पथ पर दृढता के साथ महावीर ने अपने कदम आगे बढाये।
इधर विरहिणी यशोदा प्रिय के विरह में छटपटा रही है, हे नाथ ! मैं जिधर देखती हूँ उधर आपका रूप कण कण में दिखाई देता है। हर पदार्थ में आपकी यश की सुवास निहित है
जिधर देखती, रूप आपका, कण कण में ही वास है। फूल-फूल में नाथ, आप के यश की परम सुवास है। अनिल उर्मि स्पर्श आपका, निर्झर कल-कल वाणी। हर विकास में स्मित प्रभु की, जग सुखकर कल्याणी॥
*** एकान्त में वह निर्जन प्रकृति के शान्त रूप को निहारती है। उन्हें झील में प्रियतम की परछाई एवं नभशशि-तारा सभी में प्रियतम का प्रतिबिंब दिखाई देता है। उनके नाम मात्र के उच्चारण से दुष्कर से दुष्कर कष्ट भी समाप्त हो जाता हैं। कभी अपनी प्रियदर्शना को संबोधित करती हुई अतीत की स्मृति में खो जाती है, और कहती है, “हे बेटी ! प्रभु के गुण गाले। तेरे पिता जग के हित सूर्य बने हैं। उसी उपलक्ष में प्रभु के मंगल पर्व हम सब मिलकर मनालें।" कभी सखी को कहती है, “हे सखि ! मेरे सुखद स्वप्न प्रिय के साथ चले गये, गुड्डी मैंन नभ में तनी थी, वह शिथिल हाथ रूपी डोर से कट गयी, और देख, वह चन्द्र के साथ भी कला लगी है। मैं ऐसी हत भागिनी हूँ कि मुझे नाथ छोडकर चले गये।'' कवि शर्माजी ने यशोदा विलाप का दृश्य बड़े ही करूण रूप से व्यक्त किया है
हाय सखी ! कैसे कहूँ ? सुखद स्वप्न प्रिय साथ। गुड़ी तनी नभ में कटी, शिथिल डोर है हाथ ।। देखों री चन्द्र है, कला लगी है साथ। मैं एसी हत भागिनी, त्याग गये हैं नाथ ॥२
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"भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, “यशोदा विरह", सर्ग-१५, पृ.१६३ वही, पृ.१६३ से १६४
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