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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
ऐसे ही जाना था तजकर तो क्यों मुझको ले लाए ? तो क्या मेरे अन्तर्मन में
टीस जगाने को लाए ?
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२.
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मेरे लिए महल का जीवन, शूल भरा है पीड़ा स्थल ।
बिन स्वामी के नरक तुल्य है, नागों का है क्रीडा-स्थल ॥ २
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भगवान महावीर मौन मुद्रा को भंग करते हुए शांत और गंभीर स्वर में बोले"देवी ! तुम क्यों व्यर्थ ही चिन्ता करती हो ? तुम्हें संसार में किस वस्तु की कमी है ? मैं अपनी स्मृति के रूप में प्रियदर्शना को तुम्हें सौंप ही चला हूँ । मुझे अब अपना काम करने दो। मोह, माया और ममता के बन्धन मुझे अप्रिय लगते हैं, खलते हैं। मुझे इन्हें तोड़ना है और भला यह सब प्रव्रजित हुये बिना कैसे संभव हो सकता है ?”
दीक्षा ग्रहण के पश्चात् प्रभु को विहार के लिए उद्यत देख, प्रिय यशोदा और जनता के दिलों को उदासीनता ने घेर लिया । प्रभु के विरह का अनुभव कर यशोदा शोक-सिन्धु में डूबने-उतराने लगी । कवि गुप्तजी, योधेयजी तथा शर्माजी सभी कवियों ने यशोदा की विरह वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है
पल पल काट रही हूँ जैसे जल बिन मीन तडपती है। चकवी जैसे रात-रात भर प्रिय से बिछुड़ कलपती है ॥
कौन समझता, किसका दुःख है, जिस पर बीती वही जानता । औरों का उपहास सरल है, स्वयं भोगता, तभी मानता ।।
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'श्रमण भगवान महावीर”, कवि योधेयजी, विदा की वेला, सोपान- ३, पृ. १२५
वही,
पृ. १२६
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'भगवान महावीर” : कवि शर्माजी, “यशोदा विरह", सर्ग - १५, पृ. १६४
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