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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
कहाँ तो मेरे पुत्र की सुकुमारता और कोमलता, और कहाँ कंकरीली कठोर धरती ? तप्त शिलाखण्डों पर बैठकर आत्म चिंतन करना, क्या सुकुमार महावीर से संभव होगा ? हाथियों की चिंघाड़, सिंहों की गर्जना, एवं सर्पो के उत्कट फूत्कारों को यह कैसे सहन कर सकेगा ? मेरा हृदय आशंका से दहल रहा है और मेरा रोम-रोम कांप रहा है । माता त्रिशला की विचारधारा में मोह की तीव्रता बढ़ी । उसकी सोचने की तीव्रता ने उन्हें मूर्च्छित कर दिया । जब त्रिशला की मूर्च्छा टूटी। चेतना के लौटते ही पुत्र वात्सल्य उमड़ पड़ा। उन्हें सारा संसार रुक्ष, कर्कश और कठोर प्रतीत हुआ। सारा दृश्य मर्मस्पर्शी था। माता लड़खड़ाती हुई उठी और संतप्त हृदय से महावीर तो ढूँढने लगी । महावीर को दृढ संकल्प से वैराग्य के प्रति कटिबद्ध हो चूके थे । उनके अंतरंग में वीतरागता की उन्ताल तरंगे उठ रही थी और यह संसार उन्हें स्वार्थो का जलता हुआ पुञ्ज दिखाई पड़ रहा था ।
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इन्द्र को अवधिज्ञान से तीर्थंकर महावीर की विरक्ति का समाचार ज्ञात हुआ । वह उल्लसित होकर शीघ्र ही कुण्डग्राम आ पहुँचा और कई प्रकार से हर्षोत्सवों का आयोजन किया । देव विभिन्न प्रकार से उत्सवों का आयोजन करते हु महावीर के वैराग्य की श्लाधा करने लगे। आगत देवों ने माता त्रिशला को विह्वल देखा तो वे हृदय की प्रशंसा करते हुए सांत्वना के स्वर में कहने लगे,
मातृ
"जननी होकर भी जान न पाई तुम बोले
तुम धन्य कि सुत की ममता के बन्धन खोले ॥ १
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माँ करो मोह का त्याग धर्म का हो साधन केवल विरक्त ही करते रहते आराधन ।।'
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१.
२.
“जगदम्बे ! तीर्थंकर की माता होकर आपने महान पुण्य अर्जित किया है । आपका पुत्र परम तेजस्वी और विश्व का कल्याणकारक है । आप इतना विलाप क्यों करती है ? चिन्ता छोड़िये । शीत, आतप और वर्षा का कष्ट सहन करने का उसमें अपूर्व सामर्थ्य है। वे धीरज के धनी हैं और समस्त उदात्त गुणों से सम्पन्न है। तुम्हारी कुक्षि धन्य
"तीर्थंकर महावीर” : कवि गुप्तजी, तृतीयसर्ग, पृ. ११७
वहीं,
पृ. ११९
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