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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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यौवन के द्वार पर पहुँचते वर्धमान महावीर गंभीर चिंतक साथ ही शान्ति समता एवं करूणा की सजीव मूर्ति के रूप में समाज में चमक उठे थे। माता-पिता ने महावीर के विवाह का विचार किया। वे चाहते थे कि वर्धमान की यह अति गंभीरता और अति शान्तप्रियता टूटनी चाहिए और इसका सहज मनोवैज्ञानिक उपाय है विवाह । यौवन का स्वतंत्र उपभोग । वे भूल गये थे, वर्धमान इसी जन्म में वीतराग तीर्थंकर बनने वाले हैं, उनकी वृत्ति में न मोह है न राग, न भोग की आकांक्षा और न किसी प्रकार का भौतिक आकर्षण । उनके अन्दर तो अनंत करूणा, निस्पृहता, वैराग्य, असीम समता का सागर लहरा रहा है।
त्रिशला ने जब महावीर की आध्यात्मिक जागृति का संवाद सुना तो उनका मातृत्व मचल उठा। ममता उतावली हो उठी और उसके मनःप्राण शून्य हो गये । वह सोचने लगी- राजसी वैभव में पला मेरा लाड़ला बीहड़ वन पर्वतों में किस प्रकार विचरण करेगा ? ग्रीष्म के कड़े संताप को कैसे सहन करेगा ? जिसने आजतक मखमल को छोडकर नंगी भूमि पर चरण भी नहीं रखा, वह कंटाकाकीर्ण भूमि में किस प्रकार गमन करेगा ? शीत ऋतु सरिता तटों पर कैसे विचरण करेगा ? जब मूसलधार वर्षा होगी तब किस प्रकार खुले आकाश में साधना कर सकेगा ? कवि माँ की अंतःकरण की वेदना को व्यक्त करते हुए काव्य में लिखते है कि
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जब घहरायेंगे नभ में
१.
२.
पृ. ११४
वर्षा के बादल
तम फैल रहा गहरा
भू पर काला काजल । १
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तू सिसक उठेगा देख
हाय हो विकल मना
“तीर्थंकर महावीर” : कवि गुप्तजी, तृतीयसर्ग, पृ. ११४
वहीं,
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भू पर उतरेगी छाँह
व्यथा की पीर घना । २
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