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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन क्रीडाओं का काल्पनिक सजीव चित्रण किया है
शिशु कभी गोद में हँसता था, गोदी से कभी निकलता था। उपर को कभी उछलता था, शैया से कभी फिसलता था। जो आती यह शिशु को लेती, हर माता के सुख देता था। वह सुधा सभी को देता था, वह भेंट प्रेम की लेता था।
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आते थे मुस्कान छोड़ते घुटरुन चलकर पास, माता त्रिशला का बढता था
देख-देख उल्लास। बालक के छोटे चरण, छोटे हाथ एवं सुंदर मुख ऐसे लगते थे मानो अरुण कुसुम खिले हों। और जब उन अंगो का प्रतिबिंब स्फटिक आंगन में पड़ता तब तो स्वच्छ सरोवर में खिले हुए लाल कमलों का दृश्य उपस्थित हो जाता । जब बालक अपनी परछाई को दर्पण या स्फटिक आंगनमें देखकर उसे पकड़ने की चेष्टा करता तो माता त्रिशला अपने लाल को हर्ष विभोर होकर गोद में ले लेती झूलेमें आँखें खोलकर जब वह देखता तो ऐसा लगता कि कोई दिव्य तारा आकाश से धरती पर उतर गया हो। कोई उसे प्यार से उछालते, कोई गोदमें लेते, कोई मेवा मिठाई खिलाते। बालक की सरलता सब को मोहित करती। उसकी सहज हँसी दःख मुक्त कर देती। उसकी तोतली बोली बड़ी मीठी लगती। शिशु वर्धमान सबका स्नेह पात्र था। सब का नयन तारा था। वास्तव में कवि गण काव्य के अंतर्गत बालक की चेष्टाओं का एवं वात्सल्य का चित्रण करने में खरे उतरे हैं। ३
“वीरायण" : कवि मित्र, “जन्मज्योति", सर्ग-४, पृ.१०५ "तीर्थंकर महावीर" : कवि गुप्त, सर्ग-१, पृ.२८.
सामान्य लोक-व्यवहारकी दृष्टि से गर्भस्थ शिशुका चिंतन और आचरण इतना विकसित हो पाना कठिन व असंगत लग सकता है, किन्तु हमें भूल नहीं जाना है कि महावीर एक लोकोत्तर पुरुष के रुप में अवतरित हुए । गर्भदशामां उन्हें तीन ज्ञाान-मति ज्ञान, श्रुत एवं अवधिज्ञान प्राप्त थे। उनके जीवन की अगणित अलौकिक घटनाओं की कड़ीमें ही यह घटना जुड़ी हुई है। दिगंबर परंपरा इस घटना पर सर्वथा मौन है।
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