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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
कवि अपनी इच्छा को व्यक्त करते हुए लिखते है कि दिव्यात्मा के जन्मोत्सव का वर्णन करने के लिए मैं अल्पमति उस प्रकाश को ढूँढ रहा हूँ। अहा, वह अमर प्रकाश ! उस प्रकाश को नेत्रों में रमाकर, हृदय में बसाकर, रोम रोम में भरकर मैं कुछ लिख सकूँगा। हे वीणावादिनी ! हे माता सरस्वती ! तुझसे मैं वह प्रकाश माँग रहा हूँ तू ही मेरी अभिलाषा पूर्ण कर सकती है। मेरी लिखनी उस प्रकाश को पाकर जन्मोत्सव का मधुर नैवेद्य प्रभु चरणों में चढाना चाहते हैं। मातृभक्तिः
त्रिशला की गर्भावस्था के लगभग साढे छ: मास ही बीते होगें कि एक बड़ा ही विचित्र प्रसंग घटित हुआ। एक दिन अचानक गर्भस्था शिशुका हलन-चलन व स्पंदन बन्द हो गया। किन्तु माता के मन पर उसका प्रतिकुल प्रभाव पड़ा। उसे भयानक अपशुकन लगा और वह मौहाकुल हो विलाप करने लगी। माता का विलाप और शोक पुत्र से देखा नहीं गया। सोचा, कहीं लाभ के बदले हानि न हो जाय, प्रतिकुल स्थिति में अमृत भी जहर का काम कर जाता है। अतः पुनः हलनचलन प्रारंभ कर दिया। . माता के करुण विलाप से शिशु महावीर के मन पर यह प्रभाव हुआ। वे सोचने लगे - “मेरे कुछ क्षण के वियोग की आशंका से ही माँ का यह हृदय जब इस प्रकार तड़पने लगा और हाहाकार करने लगा है तो मैं जब बड़ा होकर प्रव्रजित होऊँगा तो माँ के मनकी क्या स्थिति होगी? माता को कितनी असह्य पीड़ा और कितना दारूण संताप होगा ? माता के हृदय को यों तडपाना क्या उचित होगा।" मातृस्नेह से आहलादित महावीर ने संकल्प कर लिया-“जब तक माता पिता जीवित रहेगे, मैं उनकी सेवा करूँगा, इनकी आँखो के सामने गृहत्याग कर श्रमण नहीं बनूँगा।" वात्सल्यः
__कवियोने वात्सल्य मनोभावों काअद्भूत चित्रण काव्य में चित्रित किया है। उनके वात्सल्यमय चित्रण में ममतामयी माता के स्नेहपूर्ण हृदय की व्याकुलता और
औत्सुक्य की व्यंजना सुंदर रूप में प्रस्तुत की है। माता त्रिशला पुत्र को पालने में झुलाती, दुलाराती और लोरियाँ सुनाती थी। बालक की शारीरिक चेष्टाओं को देखकर भीतर ही भीतर एक नया ही आनंद अनुभव करती थी। बालक वर्धमान जब नन्हें नन्हें पावों से डगमगाकर चलता तब सभी आनंद मग्न हो जाते। कविने उन की अंगोपांग की
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(क) कल्पसूत्र-८७ (ख) त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र पर्व-१०, सर्ग-२.
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