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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
राजा और रानी दोनों ही आनंद-उल्लास के साथ दाम्पत्य जीवन यापन कर रहे थे । एक दिन शयन कक्ष में दोनों जन सुख की शैया में सो रहे थे। रात दो पहर बीत चुकी थी । महारानी त्रिशला अर्धसुषुप्त अवस्था में सुंदर एवं सुहावने चौदह स्वप्न देखती है । '
शुभ घड़ी के पूर्व सूचक हैं। श्री कल्पसूत्र में इन चौदह स्वप्नों का मनमोहक वर्णन पढकर अतिशय आनंद होता है। ये स्वप्न दिव्यात्मा के जन्म का पूर्व संकेत है । जिस प्रकार सुखद वर्षा के पूर्व शीतल पवन का झोंका आता है उसी प्रकार ये स्वप्न आनेवाले मंगल की सूचना देते हैं ।
रानी त्रिशलाने राजा सिद्धार्थ से रात्रिमें देखे हुए शुभ स्वप्नों का वर्णन किया । उनको सुन कर राजा अत्यंत प्रसन्न हुए। स्वप्न पाठकों को बुलाया गया उनके मुँह से मंगलकारी फल सुनकर राजा-रानी एवं राजसभा हर्ष से खिल उठी जिस प्रकार कि रवि किरणों से पुष्प वाटिका खिल जाती है । समस्त राजकुल भावी मंगल की शुभ कल्पना से पुलकित हो गया । कवि "मित्रजी” ने काव्य के अन्तर्गत जन्म से पूर्व का आह्लादकारी रूप का अद्भूत चित्रण अंकित किया है।
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वैशाली में दिवाली थी, लद गये वृक्ष फल फूलों से । बालक भर भर कर लाते थे, मोती कूंडो के फूलों से ॥ er गिरा हीन गूंगे मधुकर, रस लेते थे कहते कैसे । जो सुकुंड में सुख देखे, न अभी तक फिर वैसे ॥
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अनायास ही दिव्य ज्योति का अवतरण होते ही सर्वत्र प्रकाश फैल गया । यह प्रकाश पशु-पक्षी, जलचर, नभचर, थलचर, नारकी, मानव एवं देव समस्त प्राणियों को छूकर उनमें आशा की ज्योति जगाने लगा। दिव्य सौरभ से पुलकित होकर वायु मन्द गति से बहने लगी । वृक्ष फलों से लदकर हर्ष प्रकट करने लगे। आकाश में मधुर वाजित्रों की रसीली झनकार गूँजने लगी । प्रकृति नृत्यांगना का रूप धरकर मानों झम झम नाच रही हो। ऐसा अनुपम प्रकाश, ऐसा मधुर संगीत, ऐसा असीम आनंद दिव्यात्मा को जन्म का संकेत था ।
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जैन परंपरा में माना गया है कि जब तीर्थंकर और चक्रवर्ती की महान आत्मा किसी भाग्यशालिनी माता गर्भ में आती है तो माता चौदह महा शुभ स्वप्न देखती है। दिगंबर परंपरा में १६ स्वप्नों का वर्णन है।
" वीरायण" : कवि मित्रजी, "जन्मज्योति”, चतुर्थ सर्ग, पृ. ९६
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