SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा की वाच्यता सामर्थ्य : ८५ यहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन परम्परा में इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं । सामान्यतया जैन परम्परा में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका मान्य अर्थ यही है कि अस्ति और नास्ति दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया जा सकता है, इसीलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। किन्तु यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यहो अर्थ एकमात्र नहीं कहा सकता है । क्योंकि आचारांगसूत्र में आत्मा को स्वरूपतः वचनागोचर कहा गया है। उसमें कहा गया है-उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।' इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे समग्रतः वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। पुनः वस्तुतत्त्वकी अनन्तधर्मात्मकता और शब्द संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तूतत्व को अवक्तव्य माना गया है । आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्यभाव का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये वक्तव्य भावों का अनन्तवें भाग हो कथन किया जा सकता है। अतः यह मान लेना उचित नहीं है कि जैन परम्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है। सामान्यतः जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पाँचवें और छठे अर्थ मान्य रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अवक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है। यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिवर्चनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई रास्ता ही नहीं रह जायेगा । अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह निर्वचनीय या वाच्य भी है । सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय है । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट छह अर्थों में से पहले तीन को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं आती है। जैन दर्शन में सप्तभंगी की योजना में एक भंग अवक्तव्य भी है । सप्तभंगी में दो प्रकार के भंग हैं-एक मौलिक और दूसरे सांयोगिक । मौलिक भंग तीन हैं-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यात्-अवक्तव्य । शेष चार भंग सांयोगिक हैं, जो इन तीन मौलिक भंगों के संयोग से बने हुये हैं। यहाँ हमारा उद्देश्य जैन दर्शन में अवक्तव्य या अवाच्य के अर्थ को स्पष्ट करना था । हमने देखा है कि सामान्यतया जैन दार्शनिकों की अवधारणा यह है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरुद्ध धर्मों का युगपत् रूप से अर्थात् एक ही साथ प्रतिपादन करना भाषायी सीमाओं के कारण असंभव है, क्योंकि ऐसा कोई भी क्रिया पद नहीं, जो एक ही कथन में एक साथ विधान और निषेध दोनों कर सके । अतः परस्पर विरुद्ध और भावात्मक एवं अभावात्मक धर्मों की एकही कथन में अभिव्यक्ति की भाषायी असमर्थता को स्पष्ट करने के लिए ही अवक्तव्य भंग की योजना की गई है। १. अपयस्स पयं नत्थि-आचारांग ११५।६ । २. पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं ।-(अ) गोम्मटसार जीवकाण्ड ३३३५ -(ब) विशेषावश्यकभाष्य १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy